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न्याय का राजनीतिक विचार-विमर्श बनाम विकास

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किसी भी जनतंत्र में चुनाव मात्रा जीत हार, सरकार बनाने-गिराने का माध्यम नहीं होते है , यह वस्तुतः राजनीतिक चेतना को प्रेरित करने का माध्यम होते हैं | चुनाव समाज में संवाद, विकास एवं राष्ट्र निर्माण के विमर्शों को प्रेरित करने का माध्यम होता है | चुनाव के दिनों में वे बहसे मूलतः राजनीतिक दलों द्वारा जारी किए गए घोषणा पत्र रेैलिया में नेताओं के दिए गए भाषणों और बयानों से बनती बिगड़ती है|

वैसे तो मानना है कि यह चुनाव छवियो के टकराव का चुनाव है, जिससे इस चुनाव के दौरान राजनीतिक नेताओं द्वारा कही गई बातों से ज्यादा एक लंबे कालखंड में बनी बिगड़ी उनकी छवियों का असर है | इस चुनाव में कथनी से ज्यादा ‘करनी’ की स्मृतियों एवं प्रभाव में जनता वोट डाल रही है|

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चुनाव के कुछ बहसे दीर्घकालिक परिवर्तन की दृष्टि से होती है, तो कुछ बहसे तात्कालिक लोकप्रिय प्रकृति की होती है | इस चुनाव में ऐसी कौन सी बहसे ऎसी हैं जो तात्कालिक राजनीतिक लाभ का यह लोकप्रियता पाने की रणनीति से प्रेरित है | इन तमाम मुद्दों पर विचार इस चुनाव के संदर्भ में ही नहीं वरन पूरे लोकतंत्र के विकास एवं विस्तार एवं उसे गहरा बनाने के लिए जरूरी है |

इस चुनाव में दो प्रकार की बहसे होती हैं | एक तरफ, भारत देश की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लक्ष्य को विमर्श करने का विषय बना रही है| वहां भारतीय समाज में राज्य एवं संसाधनों के वितरण के लिए गरीब, युवा, नारी एवं किसान, चार आर्थिक वर्गों को केंद्र में रखकर योजनाओं को प्रचारीत कर रही है|

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दूसरी तरफ, कांग्रेस अपनी घोषणा पत्रों में अन्य वादों के साथ समाज कल्याण कार्यक्रम को आरक्षण आधारित जाती केंद्रित सामाजिक न्याय की अवधारणा के साथ मिलाकर लोकप्रियवादे के रूप में प्रचारित कर रही है | इसके लिए वह पूरे देश में जातीय जनगणना करने का भी एक लोकप्रियता वादी नारे के बारे में अपने चुनाव विमर्श में इस्तेमाल कर रही है|

अगर इस चुनाव की बहसों के निर्माण की प्रक्रिया को देख, तो साफ लगता है कि भाजपा इस चुनाव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि,सभी सामाजिक कल्याण की कार्यक्रमों पर केंद्रित एवं विकसित भारत की संकल्पना की ईद-गिर्द रखना चाहती है | इस चुनाव में टिकट बंटवारे में परोक्ष जातीय जोड़ घटाव की ओर छोड़ दे, तो अपने उसने घोषणा पत्र के नेताओं के भाषणों में जातीय अस्मिता की राजनीति से दूरी बनाने की कोशिश की है |

चुनाव में राजनीतिक पार्टियों की घोषणा-पत्र

वहीं कांग्रेस ने अपने चुनावी विमर्श में शुरू से ही भारतीय समाज में जातीय आधारित सामाजिक अन्याय को मुद्दा बनाने बनाते हुए पारंसपरिक ढंग की आरक्षण आधारित सामाजिक न्याय को लोकप्रिय बहस बनाने की कोशिश की है | इस बार अल्पसंख्यकों के संदर्भ में धार्मिक अस्मिता एवं सामाजिक न्याय के संदर्भ में जातीय अस्मिता कांग्रेस के घोषणा पत्र के केंद्रीय तत्व बने हुए हैं | कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस जातीय एवं धार्मिक अस्मिता को न्याय अन्याय जैसी शब्दावली के बारे में बार-बार उठाया है |

कांग्रेस ने भाजपा के शासन में आने वाले संविधान बदल दिया जाएगा, चुनाव नहीं होंगे आदि अनेक भय व चिन्ता जगाने वाली विमर्श खड़े किए हैं | कांग्रेस के चुनावी विमर्श को इसी रणनीति ने भाजपा को अपने चुनावी विमर्श की रणनीति में परिवर्तन के लिए बाधित किया है | कांग्रेस के इन पारंसपरिक राजनीतिक अस्त्रों का जवाब देने के लिए भाजपा ने अपने विकास, भारत गर्व एवं विकसित भारत के विमर्श के साथ ही कांग्रेस पर तुदृष्टीकरण की राजनीति करने का पारंसपरिकअस्त्र चला दिया है |

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इसी तुष्टीकरण के विमर्श में जातियों के साथ ही धार्मिक अस्मिता का विमर्श भी सामने आने लगा है | भाजपा ने साक्षमता से इस तुष्टीकरण के विमर्श को सामाजिक न्याय की विमर्श से जोड़ दिया है | यह प्रचार शुरू कर दिया कि कांग्रेस के एक धर्म के लोगों को संतुष्ट करने के लिए पिछड़ों, अनुसूचित जाति, जनजाति के गरीबों का हक छीनकर एक खास धार्मिक समुदाय में बांट देना चाहती है | साथ ही, उसने कांग्रेस द्वारा स्वर्ण एवं संपत्ति के सर्वे की मंशा को भारतीय स्त्रियों की विशेषाधिकार मध्यम वर्गीय स्त्रियों के “मंगलसूत्र” पर खतरे की वृत्तांत में पिरो दिया है |

राजनीतिक पार्टियों की अपनी जातीये वादे

भारतीय चुनाव में वृतांतों या नरेटिवेस की राजनीति में प्रधानमंत्री मोदी का यह मास्टर स्टोक माना जाना चाहिए, जिसमें उन्होंने मध्यमवर्गीय मानस को झकझोरा ही, गरीबों, पिछड़ो एवं दलितों की अस्मिता को भी पारंपरिक जाति आधारित सामाजिक न्याय की राजनीति के खाचे से बाहर निकाल हिंदुत्व, सामाजिक न्याय और विकास की आकांक्षा का संतुलित मिश्रण तैयार किया है | राजनीति में एक ऐसा मारक आक्रमण है, जिसका सामना कांग्रेस के विमर्श कार कैसे कर पाते हैं, यह देखना होगा |

यह बार-बार देखने में आता है की जाति कई बार सामाजिक न्याय के वितरण की एक इकाई के रूप में मददगार होती है, किंतु आगे चलकर अनेक प्रकार के सामाजिक अन्याय को जन्म देती है | कांग्रेस को यह समझना होगा की जाति से जाति को काटना भारतीय समाज में अत्यंत मुश्किल है | हमने देखा हैकि ऐसे अनेक प्रयोग अब तक विफल हुए है |

आजादी के बाद सामाजिक न्याय की राजनीति एक अनोखे प्रयोगकर्ता काशीराम शुरुआती सफलताओं के बाद अंतत कमजोर पड़ती देखे गए हैं | समझना होगा कि भारतीय समाज में जाति की धार को आर्थिक विकास की प्रक्रिया से ही कुंद किया जा सकता है|

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