छावा के बेटे छत्रपति साहूजी महाराज ने मुगलों से कैसे लिया बदला, मराठों के लिए क्या-क्या किया?
मराठा साम्राज्य का इतिहास वीरता, संघर्ष और साहस की अनगिनत कहानियों से भरा हुआ है। इस साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपनी दूरदर्शिता और युद्ध कौशल से इसे स्थापित किया, लेकिन उनके बाद उनके पुत्र संभाजी महाराज (जिन्हें “छावा” यानी शेर का बच्चा कहा जाता था) और पौत्र छत्रपति साहूजी महाराज ने इसे न केवल संभाला बल्कि इसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। संभाजी महाराज की क्रूर हत्या के बाद उनके बेटे साहूजी महाराज ने मुगलों से बदला लेने और मराठा साम्राज्य को पुनर्जनन देने का जो संकल्प लिया,
वह इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है। इस ब्लॉग पोस्ट में हम जानेंगे कि साहूजी महाराज ने मुगलों से कैसे बदला लिया और मराठों के लिए क्या-क्या किया।
साहूजी महाराज का प्रारंभिक जीवन और मुगलों की कैद
छत्रपति साहूजी महाराज का जन्म 18 मई 1682 को हुआ था। वे संभाजी महाराज और उनकी पत्नी महारानी येसुबाई के पुत्र थे। उनके जीवन का शुरुआती दौर बेहद कठिनाइयों से भरा रहा। 1689 में जब संभाजी महाराज को मुगल बादशाह औरंगजेब ने धोखे से पकड़कर क्रूरता से मार डाला, तब साहूजी मात्र सात वर्ष के थे।
इस घटना के बाद मुगलों ने रायगढ़ किले पर कब्जा कर लिया और साहूजी को उनकी मां येसुबाई के साथ कैद कर लिया। लगभग 18 वर्षों तक, यानी 1707 तक, साहूजी मुगलों की कैद में रहे। इस लंबी अवधि में उन्होंने न केवल अपमान और कष्ट सहा, बल्कि मुगलों की रणनीतियों को भी करीब से समझा, जो बाद में उनके लिए उपयोगी साबित हुआ।
कैद से मुक्ति और मराठा सिंहासन की लड़ाई
1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके बेटे बहादुर शाह प्रथम ने मुगल सिंहासन संभाला। इस बदलते राजनीतिक परिदृश्य में साहूजी को रिहा कर दिया गया। मुगलों ने उन्हें एक दोस्ताना मराठा नेता के रूप में देखा, जो उनके लिए लाभकारी हो सकता था। लेकिन साहूजी का लक्ष्य कहीं बड़ा था। रिहाई के बाद उन्होंने अपने पिता संभाजी और दादा शिवाजी के सपनों को साकार करने के लिए मराठा सिंहासन पर अपना दावा ठोंका।
हालांकि, यह राह आसान नहीं थी। संभाजी की मृत्यु के बाद उनके सौतेले भाई राजाराम ने मराठा साम्राज्य संभाला था, और राजाराम की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ताराबाई ने अपने बेटे शिवाजी द्वितीय को छत्रपति घोषित कर सत्ता अपने हाथ में ले ली थी। साहूजी के सामने ताराबाई और उनके समर्थकों से संघर्ष की चुनौती थी। 1708 में खेड़ के युद्ध में साहूजी ने ताराबाई की सेना को हराया और सतारा को अपनी राजधानी बनाकर मराठा साम्राज्य के छत्रपति के रूप में खुद को स्थापित किया। इस जीत ने उन्हें मराठा सरदारों का विश्वास दिलाने में मदद की।
मुगलों से बदला: रणनीति और संधियां
साहूजी महाराज ने मुगलों से सीधे युद्ध के बजाय कूटनीति और रणनीति का सहारा लिया। वे समझते थे कि मुगल साम्राज्य औरंगजेब की मृत्यु के बाद कमजोर हो रहा था। उन्होंने इस कमजोरी का फायदा उठाया और मुगलों के साथ एक समझौता किया, जिसके तहत उन्हें दक्कन में “चौथ” और “सरदेशमुखी” (राजस्व वसूली के अधिकार) प्राप्त हुए। यह एक चतुर कदम था, क्योंकि इससे मराठों को आर्थिक मजबूती मिली और मुगलों की शक्ति पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रहार हुआ।
साहूजी ने अपने पिता की हत्या का बदला सीधे युद्ध से नहीं, बल्कि मुगल साम्राज्य को धीरे-धीरे खोखला करने की नीति से लिया। उन्होंने मराठा सेना को संगठित किया और पेशवा बालाजी विश्वनाथ को अपना सेनापति नियुक्त किया। बालाजी विश्वनाथ की मदद से साहूजी ने मुगलों के खिलाफ कई अभियान चलाए। 1719 तक मराठों की शक्ति इतनी बढ़ गई कि मुगलों को साहूजी की मां येसुबाई को रिहा करना पड़ा, जो उनके लिए एक बड़ी नैतिक जीत थी।
मराठा साम्राज्य का विस्तार और संगठन
साहूजी महाराज का सबसे बड़ा योगदान मराठा साम्राज्य का पुनर्गठन और विस्तार था। उन्होंने मराठा सरदारों को एकजुट किया और उन्हें स्वायत्तता दी, जिससे वे अपने क्षेत्रों में मुगलों के खिलाफ प्रभावी ढंग से लड़ सकें। पेशवा बालाजी विश्वनाथ और बाद में उनके बेटे बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मराठा सेना ने उत्तर भारत में अपनी धाक जमाई। मालवा, गुजरात और बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों पर मराठों का कब्जा हो गया, जो मुगल साम्राज्य के लिए एक बड़ा झटका था।
साहूजी ने प्रशासनिक सुधार भी किए। उन्होंने “चौथ” और “सरदेशमुखी” से मिलने वाले राजस्व को व्यवस्थित किया और इसे मराठा सेना को मजबूत करने में लगाया। उनकी नीतियों के कारण मराठा साम्राज्य न केवल दक्कन तक सीमित रहा, बल्कि यह उत्तर भारत में भी एक प्रमुख शक्ति बन गया। यह सब उनके पिता संभाजी के बलिदान का प्रतिफल था, जिसे साहूजी ने मुगलों से बदले के रूप में देखा।
सामाजिक सुधार और मराठों के लिए योगदान
साहूजी महाराज ने न केवल सैन्य और राजनीतिक क्षेत्र में योगदान दिया, बल्कि सामाजिक सुधारों में भी अपनी छाप छोड़ी। उन्होंने जाति व्यवस्था में सुधार की कोशिश की और समाज के सभी वर्गों को मराठा साम्राज्य के निर्माण में शामिल किया। कोल्हापुर में उनके द्वारा किए गए कार्यों ने उन्हें वहां के लोगों का प्रिय बना दिया। बाद में कोल्हापुर शाखा के छत्रपति शाहूजी महाराज (1874-1922) ने भी उनकी विरासत को आगे बढ़ाया और शिक्षा व सामाजिक समानता के लिए काम किया।
साहूजी ने मराठों को एक पहचान दी। उनके शासनकाल में मराठा साम्राज्य की सेना इतनी शक्तिशाली हो गई कि मुगल बादशाह भी उनसे संधि करने को मजबूर हुए। यह उनके पिता संभाजी की शहादत का सबसे बड़ा बदला था, क्योंकि मराठों ने न केवल अपनी स्वतंत्रता बरकरार रखी, बल्कि मुगल शासन को कमजोर करने में भी सफलता हासिल की।
छत्रपति साहूजी महाराज का जीवन संघर्ष, सूझबूझ और विजय की कहानी है। कैद के कठिन दिनों से निकलकर उन्होंने मराठा साम्राज्य को नई दिशा दी और अपने पिता संभाजी की शहादत का बदला मुगलों को उनकी ही जमीन पर कमजोर करके लिया। उनकी रणनीति, कूटनीति और नेतृत्व ने मराठों को एक ऐसी शक्ति बना दिया, जो आने वाली शताब्दियों तक भारतीय इतिहास में गूंजती रही। साहूजी ने 15 दिसंबर 1749 को सतारा में अंतिम सांस ली, लेकिन उनकी विरासत आज भी मराठा गौरव के प्रतीक के रूप में जीवित है।
साहूजी महाराज ने मराठों के लिए जो किया, वह केवल सैन्य विजय तक सीमित नहीं था। उन्होंने एक सपना पूरा किया—हिंदवी स्वराज्य का सपना, जिसे उनके दादा शिवाजी और पिता संभाजी ने देखा था। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची जीत ताकत से नहीं, बल्कि संकल्प और समझदारी से हासिल की जाती है।