बाबा आमटे: रईसी छोड़ कुष्ठ रोगियों की सेवा और 5000 किमी की ऐतिहासिक पदयात्रा
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मुरलीधर देवीदास आमटे, जिन्हें हम बाबा आमटे के नाम से जानते हैं, भारतीय समाज में सेवा, मानवता और समर्पण का प्रतीक हैं। उन्होंने अपना जीवन कुष्ठ रोगियों, वंचितों और जरूरतमंदों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। एक संपन्न परिवार में जन्मे बाबा आमटे ने ऐशो-आराम की जिंदगी छोड़कर समाज के सबसे उपेक्षित वर्ग—कुष्ठ रोगियों—की सेवा करने का कठिन मार्ग चुना। इसके अलावा, उन्होंने सामाजिक न्याय और पर्यावरण संरक्षण के लिए 5000 किलोमीटर की ऐतिहासिक पदयात्रा भी की।
इस लेख में हम जानेंगे कि बाबा आमटे ने रईसी छोड़कर कुष्ठ रोगियों की सेवा क्यों चुनी और उनकी 5000 किमी की पदयात्रा का उद्देश्य क्या था।
बचपन और प्रारंभिक जीवन
बाबा आमटे का जन्म 26 दिसंबर 1914 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले में एक समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता देवीदास आमटे ब्रिटिश सरकार में अधिकारी थे, जिसके चलते उनका बचपन ऐशो-आराम में बीता। उन्हें बेहतरीन शिक्षा मिली और वे अंग्रेजी में धाराप्रवाह थे।
युवावस्था में वे एक सहज, खुशमिजाज और जीवन का आनंद लेने वाले व्यक्ति थे। वे शिकार, फैंसी गाड़ियों और फिल्मों के शौकीन थे। परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत थी, इसलिए उन्हें किसी चीज की कमी नहीं थी।
लेकिन उनके भीतर समाज के लिए कुछ करने की भावना हमेशा थी, जो समय के साथ और गहरी होती गई।
कुष्ठ रोगियों के प्रति जागरूकता और सेवा का संकल्प
बाबा आमटे की जिंदगी में बड़ा बदलाव तब आया जब उन्होंने एक कुष्ठ रोगी को सड़क किनारे तड़पते हुए देखा। इस अनुभव ने उनके दिल को झकझोर दिया। उन्होंने महसूस किया कि समाज कुष्ठ रोगियों से किस तरह से भयभीत रहता है और उन्हें सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर देता है।
इस घटना के बाद, बाबा आमटे ने खुद कुष्ठ रोग के बारे में अध्ययन किया और कुष्ठ रोगियों की सेवा करने का संकल्प लिया। उन्होंने कोलकाता में कलकत्ता स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन से कुष्ठ रोग का औपचारिक प्रशिक्षण लिया और इस क्षेत्र में अपने काम की शुरुआत की।
उन्होंने 1951 में महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में आनंदवन आश्रम की स्थापना की, जो आज भी कुष्ठ रोगियों और विकलांग लोगों के पुनर्वास के लिए समर्पित है। आनंदवन में कुष्ठ रोगियों को केवल इलाज ही नहीं मिलता, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनने का अवसर भी दिया जाता है।
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क्यों चुनी सेवा की राह?
बाबा आमटे ने रईसी छोड़कर सेवा का मार्ग इसलिए चुना क्योंकि:
- समानता में विश्वास: उन्होंने महसूस किया कि समाज में असमानता और भेदभाव सबसे बड़ी समस्याएं हैं। उन्होंने अपने जीवन को वंचितों और हाशिए पर पड़े लोगों की सेवा में लगाने का फैसला किया।
- न्याय की भावना: उन्होंने देखा कि कुष्ठ रोगियों को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है, जबकि वे भी सम्मान और देखभाल के हकदार हैं।
- गांधीजी के विचारों से प्रेरणा: वे महात्मा गांधी के विचारों से बहुत प्रभावित थे और उनके मार्ग पर चलने का संकल्प लिया।
5000 किमी की पदयात्रा: ‘भारत जोड़ो आंदोलन’
बाबा आमटे न केवल कुष्ठ रोगियों के लिए समर्पित थे, बल्कि वे सामाजिक न्याय और एकता के भी बड़े समर्थक थे। उन्होंने 1985 में ‘भारत जोड़ो आंदोलन’ के तहत 5000 किलोमीटर की ऐतिहासिक पदयात्रा की।
इस पदयात्रा का उद्देश्य क्या था?
- राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना: 1980 के दशक में भारत जातीय और धार्मिक संघर्षों से जूझ रहा था। बाबा आमटे ने इस पदयात्रा के माध्यम से सांप्रदायिक सौहार्द्र का संदेश दिया।
- गरीबों और वंचितों की स्थिति सुधारने की पहल: उन्होंने देखा कि समाज में गरीबों और दलितों को न्याय नहीं मिल रहा है। उन्होंने उनकी आवाज़ बुलंद करने के लिए यह यात्रा की।
- पर्यावरण संरक्षण: यात्रा के दौरान उन्होंने पर्यावरण बचाने के लिए भी संदेश दिया और लोगों को जागरूक किया।
यात्रा का मार्ग
बाबा आमटे और उनके अनुयायियों ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक यात्रा की। उन्होंने रास्ते में हजारों लोगों से मुलाकात की, सभाएँ कीं और समाज में जागरूकता फैलाने का प्रयास किया।
बाबा आमटे की अन्य प्रमुख उपलब्धियाँ
- आनंदवन की स्थापना: यह एक मॉडल पुनर्वास केंद्र बन गया, जहाँ कुष्ठ रोगियों को आत्मनिर्भर बनाया जाता है।
- महात्मा गांधी से प्रेरणा: उन्होंने गांधीजी के विचारों को अपने जीवन में अपनाया और सामाजिक सेवा को ही अपना धर्म बना लिया।
- सामाजिक कार्य: उन्होंने महिलाओं, आदिवासियों और विकलांगों के अधिकारों के लिए भी काम किया।
- संयुक्त राष्ट्र द्वारा सम्मानित: बाबा आमटे को उनके कार्यों के लिए कई अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले, जिनमें रेमन मैग्सेसे पुरस्कार और टेम्पलटन पुरस्कार शामिल हैं।
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बाबा आमटे का जीवन दर्शन और विचार
बाबा आमटे मानते थे कि सेवा ही सच्ची पूजा है। उनका जीवन दर्शन था:
- “काम करना ही असली इबादत है।”
- “दीन-दुखियों की सेवा करना ही मानवता की सबसे बड़ी पहचान है।”
- “डर को मिटाओ, क्योंकि डर ही सबसे बड़ी गुलामी है।”
उनका मानना था कि समाज के उपेक्षित और कमजोर वर्गों को मुख्यधारा में लाए बिना देश का विकास संभव नहीं है।
बाबा आमटे की विरासत
बाबा आमटे ने अपने जीवन में जो कार्य किए, वे आज भी लाखों लोगों के लिए प्रेरणा बने हुए हैं। उनकी विरासत को उनके बेटे प्रकाश आमटे और मंदाकिनी आमटे आगे बढ़ा रहे हैं।
उन्होंने हेमलकसा प्रोजेक्ट की शुरुआत की, जो आदिवासी कल्याण और चिकित्सा सेवा के लिए समर्पित है। बाबा आमटे के विचार आज भी सामाजिक कार्यकर्ताओं को प्रेरित कर रहे हैं।
बाबा आमटे का जीवन त्याग, सेवा और मानवता की मिसाल है। उन्होंने एक समृद्ध जीवन छोड़कर गरीबों, कुष्ठ रोगियों और वंचितों की सेवा को अपना धर्म बना लिया।
5000 किलोमीटर की उनकी पदयात्रा केवल एक यात्रा नहीं थी, बल्कि यह सामाजिक न्याय, राष्ट्रीय एकता और पर्यावरण संरक्षण का एक संदेश थी।
आज, जब समाज में जातिवाद, सांप्रदायिकता और असमानता जैसी समस्याएँ बनी हुई हैं, बाबा आमटे के विचार और उनके कार्य हमें यह सिखाते हैं कि हम अपने प्रयासों से समाज में बदलाव ला सकते हैं।
उनका जीवन हमें यही संदेश देता है—“सेवा सबसे बड़ी साधना है, और परोपकार सबसे बड़ा धर्म।”