प्यार की कब्र: सौरभ राजपूत को 15 टुकड़ों में काटने वाली हैवान बीवी की कहानी

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प्यार की कब्र: सौरभ राजपूत को 15 टुकड़ों में काटने वाली हैवान बीवी की कहानी

सौरभ राजपूत

प्यार की राहें अक्सर फूलों से सजी लगती हैं, लेकिन मेरठ की एक गली में यह राह खून से लथपथ हो गई। सात फेरे, सात वचन और सात जन्मों का बंधन—ये शब्द सुनते ही दिल में एक सुकून सा महसूस होता है। लेकिन क्या हो जब यही वचन चीखते हुए 15 टुकड़ों में बंट जाएं और प्यार की आड़ में छिपा एक खौफनाक चेहरा सामने आए? सौरभ राजपूत की कहानी ऐसी ही एक रूह कंपा देने वाली दास्तां है, जो सुनने वालों की नींद उड़ा देती है।

यह एक सौरभ राजपूत लव मैरिज की वह भयानक सच्चाई है, जहां पत्नी मुस्कान ने अपने प्रेमी साहिल के साथ मिलकर न सिर्फ अपने पति की हत्या की, बल्कि उसकी लाश को 15 टुकड़ों में काटकर सीमेंट के ड्रम में कैद कर दिया। यह कहानी किसी डरावनी फिल्म से कम नहीं—बल्कि उससे भी ज्यादा भयावह।

प्यार का भूत और सौरभ का सपना

सौरभ राजपूत, एक मर्चेंट नेवी ऑफिसर, जिसकी जिंदगी समंदर की लहरों और लंदन की सड़कों के बीच बीतती थी। 2016 में उसकी मुलाकात मुस्कान रस्तोगी से हुई। यह मुलाकात जल्द ही एक ऐसे प्यार में बदली, जिसके लिए सौरभ राजपूत ने अपने परिवार से बगावत कर दी। इंटरकास्ट लव मैरिज के चलते उसे घर से निकाल दिया गया, प्रॉपर्टी से हाथ धोना पड़ा, लेकिन सौरभ को लगा कि मुस्कान उसकी जिंदगी का वो जहाज है जो उसे हर तूफान से बचा लेगी। मेरठ के इंदिरा नगर में किराए के मकान में दोनों ने नई शुरुआत की।

उनकी 6 साल की बेटी पीहू उनकी जिंदगी की रोशनी बन गई। लेकिन सौरभ राजपूत को क्या पता था कि जिस मुस्कान को उसने अपनी दुनिया बनाया, वही उसकी कब्र खोद रही थी।

सौरभ राजपूत की नौकरी उसे लंदन ले जाती थी, और मुस्कान घर पर अकेली रहती थी। इसी अकेलेपन में साहिल शुक्ला नाम का एक शैतान उसकी जिंदगी में दाखिल हुआ। पहले दोस्ती, फिर प्यार, और फिर एक ऐसा रिश्ता जो सौरभ राजपूत की मौत का कारण बन गया। जब सौरभ राजपूत को इस नाजायज रिश्ते का पता चला, तो उसने मुस्कान को माफ कर दिया। शायद उसे लगा कि प्यार में एक बार भटकना माफ किया जा सकता है। लेकिन यह माफी उसकी सबसे बड़ी गलती थी।

सौरभ राजपूत

खून से सनी रात का भयानक मंजर

फरवरी 2025 में सौरभ राजपूत अपनी बेटी पीहू के छठे जन्मदिन और मुस्कान के बर्थडे के लिए लंदन से मेरठ लौटा। 24 फरवरी को वह घर पहुंचा। 28 फरवरी को बेटी का जन्मदिन मनाया गया—हंसी-खुशी का माहौल था। लेकिन यह खुशी एक भयानक तूफान का इंतजार कर रही थी। 4 मार्च की रात, जब आसमान पर काले बादल छाए थे और मेरठ की सड़कें सन्नाटे में डूबी थीं, उस घर में एक खौफनाक साजिश ने जन्म लिया।

सौरभ राजपूत सो रहा था, शायद अपनी बेटी और पत्नी के साथ बिताए पलों के सपने देख रहा था। लेकिन मुस्कान और साहिल के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। पहले सौरभ राजपूत को नशीली दवा दी गई—उसकी सांसें धीमी हुईं, आंखें बंद हुईं।

फिर मुस्कान ने अपने हाथों से चाकू उठाया और अपने पति के सीने में गहरे तक उतार दिया। खून की धार बह निकली, लेकिन यह दोनों के लिए काफी नहीं था। सौरभ राजपूत की लाश को बाथरूम में घसीटा गया। इसके बाद जो हुआ, वह किसी हैवानियत से कम नहीं था।

मुस्कान और साहिल ने सौरभ राजपूत के शरीर को आरी और चाकू से 15 टुकड़ों में काट डाला। हर टुकड़ा करते वक्त उनकी आंखों में शायद एक शैतानी चमक थी। खून से सने हाथों से उन्होंने बाजार से लाए प्लास्टिक ड्रम में सौरभ राजपूत के टुकड़े भरे। बदबू को दबाने के लिए पहले पानी डाला, फिर सीमेंट का घोल तैयार किया और ड्रम को सील कर दिया। यह सब इतनी शांति से हुआ कि बाहर सोता मोहल्ला बेखबर रहा। क्या उस रात सौरभ राजपूत की रूह चीख रही होगी? क्या उसे अपने प्यार पर इतना बड़ा धोखा मिलने का अंदाजा था?

लाश का ड्रम और शैतानी छल

हत्या के बाद मुस्कान और साहिल ने ऐसा नाटक रचा कि कोई शक न करे। मुस्कान ने पड़ोसियों को बताया कि वह सौरभ राजपूत के साथ हिल स्टेशन घूमने जा रही है। साहिल के साथ वह शिमला और मनाली घूमने निकल गई। सौरभ के फोन से फोटोशॉप की गई तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाली गईं—जैसे सौरभ राजपूत जिंदा हो और उनके साथ मस्ती कर रहा हो। लेकिन घर में बंद वह ड्रम एक भयानक राज छिपाए हुए था। सीमेंट में जमी लाश धीरे-धीरे सड़ रही थी, और उसकी बदबू हवा में घुलने लगी थी।

17 मार्च को मुस्कान की मां ने पुलिस को फोन किया। उसने बताया कि उसकी बेटी ने उसे फोन पर सारी सच्चाई बता दी थी। पुलिस जब घर पहुंची, तो वहां का मंजर देखकर उनके भी रोंगटे खड़े हो गए। ड्रम को खोलने के लिए ड्रिल मशीन लानी पड़ी। जब सीमेंट टूटा, तो सौरभ राजपूत के सड़े-गले टुकड़े बाहर आए—हाथ, पैर, सिर—हर हिस्सा चीख रहा था। पोस्टमॉर्टम हाउस में डॉक्टरों के चेहरों पर भी डर साफ दिख रहा था।

सौरभ राजपूत

पुलिस का शिकंजा और सच का काला चेहरा

मुस्कान और साहिल को गिरफ्तार कर लिया गया। पूछताछ में पता चला कि हत्या के बाद दोनों सौरभ राजपूत के बैंक खाते से 6 लाख रुपये निकालना चाहते थे। यह सिर्फ प्यार का धोखा नहीं था, बल्कि लालच का खेल भी था। मुस्कान ने पुलिस को बताया कि वह सौरभ राजपूत से तंग आ चुकी थी और साहिल के साथ नई जिंदगी शुरू करना चाहती थी। लेकिन उसने जो रास्ता चुना, वह किसी इंसान का नहीं, बल्कि एक राक्षस का था।

सात फेरों का अंत और डरावना सबक

सौरभ राजपूत की यह कहानी सुनकर रातों की नींद गायब हो जाती है। जिस प्यार के लिए उसने सब कुछ छोड़ा, उसी ने उसे मौत के मुंह में धकेल दिया। सात फेरे जो जिंदगी की कसम थे, 15 टुकड़ों में बंट गए। यह घटना एक सवाल छोड़ जाती है—क्या प्यार इतना खतरनाक हो सकता है? क्या विश्वास की आड़ में कोई इतना बड़ा धोखा दे सकता है? सौरभ राजपूत की बेटी पीहू अब अनाथ है, और उसका भविष्य अंधेरे में डूब गया है।

मेरठ का यह हत्याकांड एक ऐसी डरावनी सच्चाई है जो हर किसी को डरा देती है। यह प्यार की नहीं, बल्कि हैवानियत की कहानी है। सौरभ राजपूत की चीखें शायद उस ड्रम में हमेशा के लिए कैद हो गईं, लेकिन यह घटना हमें चेतावनी देती है—प्यार में अंधा होना कितना खतरनाक हो सकता है। क्या आप इस कहानी को सिर्फ एक अपराध मानते हैं, या यह हमारे समाज में छिपे डरावने सच का आलम है? अपनी राय बताएं, क्योंकि यह कहानी हर उस शख्स को डराती है जो प्यार को सच मानता है।

1984 सिख दंगे: सज्जन कुमार को आजीवन कारावास की सज़ा – एक लंबी न्यायिक लड़ाई का परिणाम

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1984 सिख दंगे: सज्जन कुमार को आजीवन कारावास की सज़ा – एक लंबी न्यायिक लड़ाई का परिणाम

सज्जन कुमार

31 अक्टूबर 1984 को भारत ने एक ऐसी घटना देखी जिसने इसके सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को हमेशा के लिए बदल दिया। उस दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों – बेअंत सिंह और सतवंत सिंह – द्वारा हत्या कर दी गई। यह हत्या ऑपरेशन ब्लू स्टार का प्रत्यक्ष परिणाम थी, जिसे सिख समुदाय ने अपने पवित्र स्वर्ण मंदिर पर हमले के रूप में देखा। लेकिन इस हत्या के बाद जो हुआ, वह एक अनियंत्रित हिंसा का तांडव था, जिसे इतिहास “1984 सिख दंगे” के नाम से जानता है।

इस हिंसा में हजारों सिख मारे गए, उनके घर और व्यवसाय नष्ट हो गए, और एक पूरा समुदाय दहशत में डूब गया। इस त्रासदी में सज्जन कुमार जैसे राजनीतिक नेताओं की भूमिका पर गंभीर सवाल उठे। दशकों की कानूनी लड़ाई के बाद, दिसंबर 2018 में दिल्ली हाई कोर्ट ने सज्जन कुमार को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। यह लेख उस घटना की पृष्ठभूमि, सज्जन कुमार के मामले और इसके व्यापक प्रभावों पर विस्तार से प्रकाश डालता है।

दंगों की पृष्ठभूमि और शुरुआत

1984 के सिख दंगों को समझने के लिए हमें ऑपरेशन ब्लू स्टार के संदर्भ में जाना होगा। जून 1984 में, इंदिरा गांधी की सरकार ने पंजाब में बढ़ते सिख उग्रवाद को कुचलने के लिए स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई का आदेश दिया। इस ऑपरेशन में जरनैल सिंह भिंडरावाले और उनके समर्थकों को मार गिराया गया, लेकिन इसने सिख समुदाय के बीच गहरा आक्रोश पैदा किया। मंदिर को नुकसान और सैकड़ों नागरिकों की मौत ने सिखों में यह भावना जगा दी कि उनकी धार्मिक पहचान पर हमला हुआ है। इंदिरा गांधी की हत्या को इसी संदर्भ में देखा गया – यह एक बदले की कार्रवाई थी।

हालांकि, हत्या के बाद जो हिंसा भड़की, वह सहज नहीं थी। 1 नवंबर 1984 से शुरू हुए दंगों में दिल्ली के त्रिलोकपुरी, सुल्तानपुरी, मंगोलपुरी और पालम जैसे इलाकों में सिखों को व्यवस्थित रूप से निशाना बनाया गया। भीड़ ने सिख पुरुषों को उनके घरों से खींचकर जिंदा जलाया, बच्चों और महिलाओं पर हमले किए, और उनकी संपत्तियों को लूटकर आग के हवाले कर दिया।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में 2,733 सिख मारे गए, लेकिन स्वतंत्र अनुमानों के अनुसार यह संख्या 3,000 से 8,000 तक हो सकती है। देश के अन्य हिस्सों जैसे कानपुर, बोकारो और चास में भी सैकड़ों लोग मारे गए। कई पीड़ितों और मानवाधिकार संगठनों ने दावा किया कि यह हिंसा सुनियोजित थी, जिसमें स्थानीय नेताओं और पुलिस की मिलीभगत थी। मतदाता सूचियों का उपयोग करके सिख घरों की पहचान की गई, और हमलावरों को हथियार, पेट्रोल और केरोसिन जैसी सामग्रियां उपलब्ध कराई गईं।

सज्जन कुमार

सज्जन कुमार का उदय और विवाद

सज्जन कुमार उस समय कांग्रेस पार्टी के एक उभरते हुए नेता थे। दिल्ली के बाहरी इलाकों में उनकी मजबूत पकड़ थी, और वे 1980 में मंगोलपुरी से लोकसभा सांसद चुने गए थे। उनकी छवि एक प्रभावशाली और जन-समर्थित नेता की थी, जो अपने क्षेत्र में विकास कार्यों के लिए जाने जाते थे। लेकिन 1984 के दंगों ने उनकी इस छवि को धूमिल कर दिया।

कई प्रत्यक्षदर्शियों ने आरोप लगाया कि सज्जन कुमार ने हिंसा को संगठित करने में सक्रिय भूमिका निभाई। सुल्तानपुरी में एक गवाह, निर्मल कौर, ने दावा किया कि उन्होंने सज्जन कुमार को भीड़ को संबोधित करते हुए सुना, जिसमें उन्होंने कहा, “एक भी सिख को जिंदा नहीं छोड़ना है।” इसी तरह, पालम के राज नगर इलाके में हुई हत्याओं में उनकी संलिप्तता के सबूत सामने आए।

1 नवंबर 1984 को पालम में पांच सिखों – केवल सिंह, गुरप्रीत सिंह, नरेंद्र पाल सिंह, रघुविंदर सिंह और कुलदीप सिंह – को भीड़ ने घेरकर मार डाला। गवाहों ने बताया कि सज्जन कुमार घटनास्थल पर मौजूद थे और उन्होंने भीड़ को उकसाया। एक अन्य गवाह, शीला कौर, ने कहा कि सज्जन कुमार ने हमलावरों को यह कहकर प्रोत्साहित किया कि “सिखों ने हमारी मां को मारा है, अब हमें बदला लेना है।” इन आरोपों ने उनके खिलाफ जांच की मांग को तेज कर दिया।

लंबी कानूनी लड़ाई और देरी

1984 के दंगों के बाद सरकार ने कई जांच आयोग गठित किए, जैसे मारीचंद कमेटी (1984), जैन-बनर्जी कमेटी (1987), और नानावटी आयोग (2000)। इनमें से कई ने सज्जन कुमार और अन्य कांग्रेस नेताओं जैसे एच.के.एल. भगत और जगदीश टाइटलर के खिलाफ सबूत पाए। नानावटी आयोग ने 2005 में अपनी रिपोर्ट में सज्जन कुमार की भूमिका पर सवाल उठाए, लेकिन ठोस कार्रवाई नहीं हुई। उनके खिलाफ पहला मामला 1987 में दर्ज हुआ, लेकिन गवाहों के डरने, सबूतों के नष्ट होने और राजनीतिक दबाव के कारण वे बार-बार बचते रहे।

2005 में, जब नानावटी आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश हुई, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पीड़ितों से माफी मांगी और कार्रवाई का वादा किया। इसके बाद CBI को जांच सौंपी गई। 2013 में दिल्ली की एक निचली अदालत ने सज्जन कुमार को पालम हत्याकांड में बरी कर दिया, जिससे पीड़ित परिवारों में निराशा छा गई। लेकिन CBI ने इस फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी।

कई सालों की सुनवाई, गवाहों के बयान और सबूतों की पड़ताल के बाद, 17 दिसंबर 2018 को दिल्ली हाई कोर्ट ने सज्जन कुमार को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए कहा कि गवाहों के बयानों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

सज्जन कुमार

फैसले का महत्व और टिप्पणियां

दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस एस. मुरलीधर और जस्टिस विनोद गोयल की बेंच ने अपने 207 पेज के फैसले में कहा कि 1984 के दंगे “मानवता के खिलाफ अपराध” थे। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि यह हिंसा सुनियोजित थी और इसमें राजनीतिक संरक्षण था। सज्जन कुमार को हत्या, दंगा भड़काने, आगजनी और साजिश रचने का दोषी ठहराया गया। कोर्ट ने यह भी कहा कि इस तरह के अपराधों में देरी से मिला न्याय भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने का संदेश देता है।

फैसले के बाद सज्जन कुमार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। उन्होंने अपनी उम्र (70 से अधिक) और खराब स्वास्थ्य का हवाला दिया, लेकिन 2019 में उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट का फैसला सबूतों पर आधारित है और इसमें हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है। आज वे तिहाड़ जेल में अपनी सजा काट रहे हैं।

सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव

यह फैसला पीड़ितों के लिए एक बड़ी राहत था। 34 साल बाद मिले इस न्याय ने उनके जख्मों पर मरहम लगाया। कई पीड़ितों, जैसे जगदीश कौर, जिन्होंने अपने पति और बेटे को खोया था, ने इसे “अंधेरे में एक रोशनी” बताया। लेकिन यह भी सच है कि यह केवल एक शुरुआत है। दंगों में शामिल कई अन्य प्रभावशाली लोग अभी भी कानून की पकड़ से बाहर हैं। मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि पूर्ण न्याय तभी मिलेगा जब सभी दोषियों को सजा मिलेगी और पीड़ितों को मुआवजा व पुनर्वास मिलेगा।

राजनीतिक रूप से, यह फैसला कांग्रेस के लिए एक झटका था। 1984 के दंगे हमेशा से उनके लिए एक विवादास्पद मुद्दा रहे हैं। विपक्षी दलों, खासकर भाजपा और शिरोमणि अकाली दल, ने इसे कांग्रेस की विफलता के रूप में पेश किया। इसने यह सवाल भी उठाया कि क्या उस समय की सरकार और पुलिस ने जानबूझकर निष्क्रियता दिखाई।

1984 के सिख दंगे भारत के इतिहास में एक दुखद और शर्मनाक घटना हैं। सज्जन कुमार को आजीवन कारावास की सजा इस दिशा में एक कदम है कि दोषियों को जवाबदेह ठहराया जाए। लेकिन यह यात्रा अभी अधूरी है। यह घटना हमें सिखाती है कि सांप्रदायिक हिंसा और नफरत का जवाब सिर्फ न्याय, जवाबदेही और आपसी भाईचारे से दिया जा सकता है। यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि ऐसी त्रासदियों को दोबारा न होने दें।

कांग्रेस का खत्म होता हुआ अस्तित्व

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कांग्रेस

कहा जाता है कि डूबते जहाज में कोई सवारी नहीं करना चाहता। यही स्थिति आज भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की हो गई है| केवल एक परिवार के इर्द-गिर्द परिक्रमा करने की परंपरा के कारण देश की इस सबसे पुरानी पार्टी का लोकतंत्र खत्म हो चुका है, इसी कारण यह अब अपने अस्तित्व के संकट के दौर से गुजर रही है|

आलम यह है कि भारतीय जनता पार्टी जो कि विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है उसके विशाल संगठन के विरोध में गठित इंडिया ब्लॉक का नेतृत्व जिस कांग्रेस को सिरमौर बनाकर करना चाहिए था, आज वह स्वयं दयनीय अवस्था में है और विभिन्न क्षेत्रीय दलों की कृपा पर निर्भर रहने को विवश है| उसके नेतागढ़ एक-एक करके पार्टी छोड़ रहे हैं और भाजपा का दामन थाम रहे हैं| ऐसा लग रहा है कि अपने नेताओं को रोकने का कोई प्रयास तक कांग्रेस पार्टी नहीं कर पा रही है|

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पूरे भारत में सिकुड़ रही है कांग्रेस

पश्चिम बंगाल हो या पंजाब, बिहार हो या महाराष्ट्र, दिल्ली हो या उत्तर प्रदेश या फिर अन्य कोई राज्य, आज कहीं पर भी कांग्रेस का मोल -भाव की स्थिति में नहीं है| छोटे-छोटे दल उसे आंख दिखाने लगे हैं| जिसे देखो, वहीं इस पार्टी को नसीहत देता नजर आ रहा है| इससे आम लोगों में इस पार्टी की छवि काफी खराब हो चुकी है| स्थिति यह है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ही अपना आत्मविश्वास खो चुका है| उसके पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी ने देशभर में न्याय यात्राएं निकाली|

लेकिन ऐसा लगता है की उससे भी बात नहीं बनी और वह लोगों का भरोसा तक नहीं जीत सके, तो थक हार कर उन्होंने दक्षिण की अपनी सीट पर ही ध्यान लगना समझा| इन दोनों तो कांग्रेस व राहुल गांधी से ज्यादा खबरें आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं की आती है| इस पार्टी को छोड़ रहे लोगों का यह भी कहना है कि पार्टी नेतृत्व की सनातन धर्म विरोधी व राष्ट्र विरोधी सोच को वे
स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं| पार्टी नेताओं के बढ़बोलेपन से रही-सही कसर भी पूरी हो जाती है| ऐसे में, कोई भी भला कब तक इस पार्टी से जुड़ा रह सकता है?

कांग्रेस

पुरानी सोच से नहीं उबर पाई है कांग्रेस

आज जब भारतीय राजनीती की तस्वीर कहीं ज्यादा स्पष्ट है और पार्टियां अपनी विचारधारा खुलकर जनता के सामने रखती हैं, तो हिन्दुओं की अवहेलना करना कांग्रेस को भारी पड़ रहा है| भाजपा को इसी बात का फायदा मिला है और वह आज सत्ता में है| क्योंकि यह पार्टी अभी पुरानी सोच से उभर नहीं पाई है, इसीलिए वह डूबने के कगार पर पहुंच गई है| जिस तरह से उसके कई नेता पार्टी छोड़ रहे हैं, उससे लगता यही है कि जल्द ही पार्टी का पूरा अस्तित्व खत्म हो जाएगा| बहुत ज्यादा दिनों तक इसे संभालना अब लगभग नामुमकिन जान पड़ता है|

कांग्रेस ने चुनावी घोषणापत्र जारी करने के साथ ही अपना आगामी एजेंडा सामने रख दिया है| कांग्रेस के घोषणा पत्र में युवाओं, महिलाओं, किसानों, श्रमिकों, संविधान, अर्थव्यवस्था, संघवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और पर्यावरण पर ज्यादा देने ध्यान देने की कोशिश हुई है|पिछड़ी जातियों के उत्थान के प्रति कांग्रेस की घोषणाएं विशेष रूप से चर्चा का विषय बन रही हैं लेकिन बात यह है कि क्या यह पार्टी अपने इन सभी वादों को पूरा कर पाएगी? और उससे पहले एक और सवाल यह है कि है कि क्या यह पार्टी सत्ता में आ पाएगी क्योंकि इस पार्टी की जो वर्तमान समय में हालात दिख रही है उससे लगता तो नहीं है कि वह सत्ता में आ पाएगी|

हिंदू धर्म को जातियों में बांटना चाहती है कांग्रेस

क्योंकि कांग्रेस पार्टी में आंतरिक फूट पड़ी हुई है, कई बड़े-छोटे नेता पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम रहे हैं| जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है|बेशक, संविधान लागू होने के कई साल बाद भी जातिगत भेदभाव पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है और इसे खत्म करने के लिए देश की आने वाली सरकारों को सकारात्मक उपायों के साथ काम करना होगा| अपने घोषणापत्र में कांग्रेस ने इस मंशा को जाहिर करने की कोशिश की है|

कांग्रेस

विकास की दौड़ में पीछे रह गए लोगों के लिए हर पार्टी को पहल करनी ही चाहिए| कांग्रेस के घोषणा पत्र में यह बताया गया है कि सत्ता में आने के बाद वह पिछड़ी जातियों का भला करेगी, लेकिन पिछले 70 सालों में इस पार्टी ने पिछड़ी जातियों को सिर्फ शेखचिल्ली के सपने ही दिखाएँ हैं| और रही बात जातिगत जनगणना कराने की तो इस सोंच से केवल हिंदू धर्म को बांटने की शाजिस रची जा रही है जो कांग्रेस ने अपने पिछले शाशनकालों में किया|

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महाराष्ट्र में अन्य दलों से सीट बंटवारे में बड़ी बेचैनी

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महाराष्ट्र

महाराष्ट्र में राजनीतिक दलों का सीट बंटवारा

महाराष्ट्र में 2019 के बाद से सब कुछ बदल गया है| शिवसेना और एनसीपी के 2 समूहों में बांटने के बाद, 2024 के चुनाव में चार स्थानीय दल अपने वर्चस्व के लिए लड़ रहे हैं| लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान में लगभग 2 सप्ताह पहले महाराष्ट्र में सियासी हलचल अप्रत्याशित मोड़ों से भरी हुई है|

दोनों पक्षों के गठबंधन सहयोगियों के बीच आंतरिक कलह की भरमार हो गई हैI लेकिन साप्ताहिक में तेजी से या अफवाह फैली कि मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे जनता की नजरों से गायब हो गए हैं| एक क्षेत्रीय समाचार चैनल ने तो यहां तक दावा कर दिया कि भाजपा नेता की साथ विवाद के बाद वह 36 घंटे से अधिक समय तक उपलब्ध नहीं थे |

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महाराष्ट्र सत्तारुढ़ गठबंधन में ही विपक्षी गठबंधन में ही नहीं, विपक्षी गठबंधन में ही नहीं, विपक्षी गठबन्धन में भी तनातनी का दौर चल रहा है| शिवसेना यूबीटी गुट के नेता उद्धव ठाकरे ने अचानक अपने 17 उम्मीदवारों के नाम घोषित कर दिए, तो कांग्रेस ने कहा कि पार्टी इस घोषणा से स्तब्ध है, किउसे इस बारे में ठीक से सलाह नहीं ली गई थी| अधिकांश पर्यवेक्षकों को महाराष्ट्र की गठबंधन के बीच ऐसी उथल-पुथल उम्मीद नहीं थी, क्योंकि कुछ हफ्ते पहले ही गठबंधन सहयोगियों के बीच सीट बंटवारे के फार्मूले को बिना किसी विवाद के लगभग अंतिम रूप देने के साथ सब कुछ ठीक लग रहा था पर अब तनाव व्याप्त है|

निःसंदेह महाराष्ट्र की राजनीति में साल 2019 के बाद से सब कुछ बदल गया है और शिवसेना के साथ-साथ शरद पवार की एनसीपी के भी दो समूहों में विभाजित होने के बाद, अब 2024 की चुनावी लड़ाई में चार दल या चार समूह अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए लड़ रहे हैं| इनके अलावा, राज्य में पिछले दो चुनाओं में छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों का भी उदय हुआ है, जो जोश के साथ लड़ रहे हैं| यह चुनावी लड़ाई बहुरंगी बन गई है|

महाराष्ट्र

एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र सरकार में सीट बंटवारे से चिंतित

बेशक महाराष्ट्र, विधानसभा में अधिकतम सीटों के साथ भाजपा राज्य की सबसे बड़ी खिलाड़ी है, कांग्रेस अभी दूसरे स्थान पर पहुंच गई है, क्योंकि शिवसेना और राकापा का दो समूह में बट गई है| उधर प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी के उद्धव ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में कई निर्वाचन क्षेत्र में लगभग 4 प्रतिशत वोट हासिल किए थे और निर्दलीय के साथ-साथ असदुद्दीन ओवैसी की एआई एमआईम ने भी अनिश्चिता बढ़ा है|

एकनाथ शिंदे की शिवसेना को लोकसभा सीटों के बंटवारे को लेकर भाजपा के साथ किसी बड़े विवाद की आशंका नहीं थी, क्योंकि महाराष्ट्र में भाजपा के शीर्ष नेता देवेंद्र फडणवीस ने 2 साल पहले महायुति सरकार बनाने के बाद से शिंदे से अच्छे रिश्ते साझा किए हैं| हालांकि, पिछले साल जुलाई में सत्तारुढ़ गठबंधन में अजीत पवार के अचानक प्रवेश में स्थिति को स्थिर कर दिया है| जब से अजीत पवार व उनके विधायकों ने सरकार के फैसलों पर दबदबा बनाना शुरू किया है| तब से एकनाथ शिंदे नाराज नजर आ रहे हैं|

महाराष्ट्र
 
शिंदे की बड़ी चिंता यह है कि वह उन सभी 13 लोकसभा सदस्यों को कैसे समांयोजित करेंगे, जो उद्धव ठाकरे को छोड़कर उनके साथ आ गए और इसमें भी बड़ी चिंता यह है कि अगर भविष्य में भी यही सिलसिला रहा, तो क्या होगा? उन्हें तो अपने 40 विधायकों में से हर किसी का सम्मान करना है, जो उनके साथ आए हैं| 

 वह बहरहाल, कुछ सीटे  शिंदे और भाजपा में विवाद की वजह बनी रहेगी|  लगभग 1 महीने पहले से अचानक भाजपा ने शिंदे  पर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि वह मुंबई उत्तर पश्चिम में गजानन की कीर्तिकर को मैदान में न उतारे|  शिंदे और कीर्तिकर करीबी हैं, जो शिंदे के लिए मुश्किल खड़ी हो गई|  इसी तरह, पिछले हफ्ते अचानक शिंदे  को यह बताया गया कि उनकी पार्टी में बॉलीवुड अभिनेता गोविंदा को शामिल किया जाना चाहिए | 

अब शिंदे समूह गोविंद को उत्तर पश्चिम निर्वाचन क्षेत्र से लड़वा सकता है|  वैसे, मुंबई एकमात्र ऐसी जगह नहीं है जहां एकनाथ शिंदे को बेचैनी का सामना करना पड़ रहा है|  उम्मीदवारों को लेकर भी असहमति अब गंभीर स्तर पर पहुंचने लगी है|  भाजपा की तरफ से शिंदे की शिवसेना के सभी सदस्यों को यह संदेश दिया जा रहा है कि उम्मीदवार के साथ-साथ चुनाव चिन्ह के बारे में भी अंतिम फैसला भाजपा कर रही है| 

    यह स्पष्ट है कि शिंदे के ज्यादातर सांसद और विधायक इस बात से बहुत चिंतित हैं कि भाजपा लोकसभा चुनाव में हर छोटी चीज पर भी हावी होती जा रही है और सूक्ष्म प्रबधन कर रही है, ऐसा विदर्भ क्षेत्र में भी दिखने लगा है|  कुछ अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि शिंदे  सार्वजनिक रूप में शांत दिखते हैं पर बहुत बेचैन और परेशान हैं| अब यह देखना बाकी है कि क्या उनकी बेचैनी किसी कार्यवाही में तब्दील होगी या वह भाजपा के साथ गठबंधन में मिलकर काम करते रहेंगे| 

वैसे कांग्रेस और उद्धव ठाकरे के बीच भी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है|  कांग्रेस दक्षिण मध्य मुंबई में अपने उम्मीदवार के रूप में महाराष्ट्र की पूर्व मंत्री वर्षा गायकवाड़ और सांगली में विशाल पाटिल के नाम की घोषणा के लिए तैयार थी, जो 2014 में मोदी लहर से पहले कांग्रेस का गढ़ था|  महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान ने भी उद्धव गुट  द्वारा अचानक दक्षिण मध्य मुंबई से पूर्व राज्यसभा सदस्य अनिल देसाई की उम्मीदवारी और सांगली से पहलवान चंद्रहार पाटिल की उम्मीदवारी की घोषणा पर आश्चर्य व्यक्त किया| 

कथित तौर पर राज्य के शीर्ष नेतृत्व में सांगली व दक्षिण मध्य मुंबई में भी अपनेउम्मीदवार खड़े करने की संभावना के बारे में कांग्रेस आलाकमान  से परामर्श किया|  स्पष्ट है, उद्धव दक्षिण मुंबई, दक्षिण मध्य मुंबई और उत्तर पश्चिम मुंबई से चुनाव लड़कर मुंबई में अपनी पकड़ बनाए रखना चाहते हैं, जबकि अन्य दो गठबंधन सहयोगियों, कांग्रेस और शरद पवार की एनसीपी के लिए केवल तीन सीटे छोड़ रहे हैं|  जाहिर है, उद्धव इस साल के अंत में और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के साथ शहर के नगर निगम चुनाव के लिए पार्टी के हितों को ध्यान में रख लेते हैं| 

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