सीरिया के अल्पसंख्यक संकट में: नरसंहार की खबरें और मदद की गुहार

सीरिया के अल्पसंख्यक संकट में: नरसंहार की खबरें और मदद की गुहार

सीरिया

सीरिया, एक ऐसा देश जो पिछले डेढ़ दशक से गृहयुद्ध की आग में जल रहा है, आज फिर से सुर्खियों में है। लेकिन इस बार वजह बशर अल-असद की सत्ता का पतन नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों पर मंडरा रहा खतरा है। दिसंबर 2024 में विद्रोही समूह हयात तहरीर अल-शाम (HTS) के नेतृत्व में असद शासन के खात्मे के बाद, उम्मीद थी कि शायद सीरिया में शांति की किरण दिखेगी। मगर इसके उलट, अल्पसंख्यक समुदायों – जैसे अलावी, शिया, ईसाई और कुर्द – पर हमले बढ़ गए हैं।

नरसंहार की खबरें सामने आ रही हैं, और इन समुदायों की मदद की गुहार दुनिया के सामने एक अनसुनी चीख बनकर रह गई है। इस ब्लॉग में हम सीरिया के इन अल्पसंख्यकों की स्थिति, उनके खिलाफ हिंसा और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की जिम्मेदारी पर बात करेंगे।

असद के बाद का सीरिया: उम्मीद से संकट तक

सीरिया में असद शासन का अंत 8 दिसंबर 2024 को हुआ, जब HTS और तुर्की समर्थित सीरियाई नेशनल आर्मी (SNA) ने दमिश्क पर कब्जा कर लिया। असद के रूस भागने के बाद, कई लोगों को लगा कि 14 साल की तबाही के बाद शायद अब शांति आएगी। लेकिन नई अंतरिम सरकार, जिसके प्रमुख अहमद अल-शारा (HTS के नेता) को बनाया गया, ने अल्पसंख्यकों के लिए एक नया दुःस्वप्न शुरू कर दिया। सुन्नी बहुल HTS, जिसे पहले अल-कायदा से जोड़ा जाता था, पर आरोप है कि वह अलावी और शिया समुदायों को निशाना बना रही है। ईसाई और कुर्द भी इस हिंसा से अछूते नहीं रहे।

सोशल मीडिया पर हाल की पोस्ट्स और कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक, मार्च 2025 की शुरुआत में ही लताकिया और अन्य इलाकों में सैकड़ों अलावी और शिया लोगों की हत्या की खबरें आईं। इन हमलों को सुनियोजित बताया जा रहा है, जहाँ पूरे मोहल्लों को चिह्नित कर आगजनी और गोलीबारी की गई। यह हिंसा न सिर्फ बदले की भावना से प्रेरित लगती है, बल्कि धार्मिक और जातीय असहिष्णुता का भी परिचायक है।

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अल्पसंख्यकों का इतिहास और उनकी भूमिका

सीरिया की आबादी में लगभग 50% अरब सुन्नी हैं, लेकिन यहाँ अलावी (15%), कुर्द (10%), ईसाई (10%), और अन्य समुदाय जैसे द्रूज़ और इस्माइली भी हैं। असद परिवार, जो अलावी समुदाय से था, ने अपने शासन में अलावियों को विशेष दर्जा दिया, जिससे सुन्नी बहुसंख्यकों में नाराजगी बढ़ी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सभी अलावी शासन के समर्थक थे। इसी तरह, ईसाई और कुर्द समुदायों ने भी अपनी पहचान और संस्कृति को बचाने के लिए संघर्ष किया।

2011 में शुरू हुए गृहयुद्ध में इन समुदायों को कई बार निशाना बनाया गया। इस्लामिक स्टेट (ISIS) ने ईसाइयों और यज़ीदियों पर हमले किए, जबकि कुर्दों ने उत्तरी सीरिया में अपनी स्वायत्तता के लिए लड़ाई लड़ी। असद शासन ने भी अपने विरोधियों को कुचलने के लिए क्रूरता दिखाई। लेकिन अब, असद के जाने के बाद, HTS जैसे समूह अल्पसंख्यकों को “शासन के सहयोगी” मानकर उन पर हमला कर रहे हैं, भले ही उनकी व्यक्तिगत भूमिका कुछ भी रही हो।

नरसंहार की ताजा खबरें

हाल की रिपोर्ट्स और X पर वायरल पोस्ट्स के अनुसार, लताकिया के शरेफा गाँव में दो भाइयों, माहेर और यासिर बाबौद, को HTS आतंकियों ने मार डाला। इसी तरह, पिछले तीन दिनों में 1000 से ज्यादा ईसाइयों और 5000 से ज्यादा शियाओं के नरसंहार की बात कही जा रही है। ये आँकड़े पुष्ट नहीं हैं, लेकिन ये दर्शाते हैं कि हिंसा का स्तर कितना भयावह हो सकता है। दमिश्क, होम्स और अलेप्पो जैसे शहरों में अल्पसंख्यक मोहल्लों को जलाने और लूटने की खबरें भी सामने आई हैं।

संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार संगठनों ने चेतावनी दी है कि अगर यह हिंसा नहीं रुकी, तो सीरिया एक और मानवीय संकट की ओर बढ़ सकता है। पहले से ही 70 लाख लोग देश के अंदर विस्थापित हैं, और 54 लाख से ज्यादा शरणार्थी विदेशों में हैं। नई हिंसा से यह संख्या और बढ़ सकती है।

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अल्पसंख्यकों की गुहार

इन हमलों के बीच, अल्पसंख्यक समुदायों की ओर से मदद की पुकार उठ रही है। ईसाई चर्चों ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से हस्तक्षेप की माँग की है, जबकि अलावी और शिया नेताओं ने कहा है कि उनकी बस्तियाँ सुनियोजित हमलों का शिकार बन रही हैं। कुर्दिश बल, जो उत्तरी सीरिया में सक्रिय हैं, भी तुर्की समर्थित समूहों से लड़ रहे हैं, लेकिन उनकी स्थिति कमजोर पड़ती जा रही है।

एक अलावी महिला ने सोशल मीडिया पर लिखा, “हमारा कसूर सिर्फ इतना है कि हमारा जन्म इस समुदाय में हुआ। हमारे घर जल रहे हैं, हमारे बच्चे मर रहे हैं, और दुनिया चुप है।” यह दर्द सिर्फ एक समुदाय का नहीं, बल्कि पूरे सीरिया का है, जहाँ हर समूह ने किसी न किसी रूप में युद्ध की कीमत चुकाई है।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय की खामोशी

सीरिया के इस नए संकट पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया बेहद धीमी रही है। संयुक्त राष्ट्र ने 21 दिसंबर 2016 को स्थापित “इंटरनेशनल, इम्पार्शियल एंड इंडिपेंडेंट मैकेनिज्म” (IIIM) के जरिए युद्ध अपराधों की जाँच शुरू की थी, लेकिन इसके प्रयास अब तक सीमित हैं। अमेरिका, रूस और तुर्की जैसे देश अपनी रणनीतिक चालों में उलझे हैं, जबकि यूरोपीय देश शरणार्थी संकट से निपटने में व्यस्त हैं। मानवाधिकार संगठन जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच ने HTS पर नकेल कसने की माँग की है, लेकिन ठोस कार्रवाई का अभाव है।

क्या है हिंसा का कारण?

यह हिंसा सिर्फ धार्मिक नफरत का नतीजा नहीं है। असद शासन के दौरान अलावियों को मिले विशेषाधिकारों ने सुन्नी समुदाय में गुस्सा भरा था, और अब HTS इसे “बदला” के रूप में देख रहा है। लेकिन यह बदला निर्दोषों पर उतारा जा रहा है। इसके अलावा, क्षेत्रीय शक्तियों जैसे तुर्की और ईरान का प्रभाव भी इस हिंसा को बढ़ावा दे रहा है। तुर्की HTS को समर्थन दे रहा है, जबकि ईरान शिया समूहों की मदद कर रहा है। यह एक जटिल शक्ति संतुलन का खेल है, जिसमें अल्पसंख्यक पिस रहे हैं।

आगे की राह

सीरिया के अल्पसंख्यकों को बचाने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है। पहला, HTS और अन्य सशस्त्र समूहों पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाया जाए ताकि हिंसा रोकी जा सके। दूसरा, मानवीय सहायता को बढ़ाया जाए, खासकर उन इलाकों में जहाँ लोग विस्थापित हो रहे हैं। तीसरा, एक समावेशी सरकार की स्थापना हो, जिसमें सभी समुदायों को प्रतिनिधित्व मिले।

सीरिया के अल्पसंख्यक आज एक अनिश्चित भविष्य का सामना कर रहे हैं। उनकी चीखें, उनके आँसू, और उनकी गुहार हमें यह याद दिलाते हैं कि युद्ध का असली दर्द इंसानियत पर पड़ता है। यह सिर्फ सीरिया की कहानी नहीं है, बल्कि हमारी साझा जिम्मेदारी की परीक्षा है। क्या हम इन मासूमों को बचाने के लिए एकजुट होंगे, या उनकी पुकार को अनसुना छोड़ देंगे? यह सवाल हम सबके सामने है। आइए, उनकी आवाज बनें, उनके लिए लड़ें, और उन्हें वह सम्मान दें जो हर इंसान का हक है।