नारी शक्ति की हुंकार: तलवार, गोली और रेडियो से अंग्रेजों को मात देने वाली 10 कहानियाँ
भारत की आजादी का इतिहास उन अनगिनत वीरों की कहानियों से भरा है, जिन्होंने अपने खून और पसीने से इस मिट्टी को आजाद कराया। लेकिन इस संग्राम में महिलाओं का योगदान भी कम नहीं था। ये नारी शक्ति वीरांगनाएँ न सिर्फ घर की चौखट तक सीमित रहीं, बल्कि तलवारें उठाकर, गोलियाँ चलाकर और रेडियो की आवाज से क्रांति की आग भड़काकर अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती दीं। इनमें से कुछ ने अपनी जान गँवाई, तो कुछ ने अपनी पूरी जिंदगी देश को समर्पित कर दी। आइए, आज हम ऐसी 10 महिला क्रांतिकारियों की विस्तृत कहानियाँ जानें, जिन्होंने अंग्रेजों को धूल चटाई और हमें गर्व करने का मौका दिया।
नारी शक्ति की हुंकार:
1. रानी लक्ष्मीबाई – झाँसी की शेरनी
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी में हुआ था। बचपन से ही उन्हें घुड़सवारी और तलवारबाजी का शौक था। 1857 के विद्रोह में जब अंग्रेजों ने झाँसी पर कब्जा करने की कोशिश की, तो रानी ने अपनी छोटी-सी सेना के साथ उनका मुकाबला किया। उनके पति राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने उनके दत्तक पुत्र को गद्दी का हकदार नहीं माना। लेकिन रानी ने हार नहीं मानी। अपने बेटे दामोदर राव को पीठ पर बाँधकर वह युद्ध में उतरीं। ग्वालियर में 17 जून 1858 को अंग्रेजों से लड़ते हुए वह शहीद हुईं। उनकी मशहूर पंक्ति, “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी,” आज भी गूँजती है।
2. बेगम हजरत महल – अवध की बागी रानी
बेगम हजरत महल अवध की नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी थीं। 1857 में जब अंग्रेजों ने नवाब को कैद कर कलकत्ता भेज दिया, तो बेगम ने विद्रोह का झंडा उठाया। अपने 11 साल के बेटे बिरजिस कादर को गद्दी पर बिठाकर उन्होंने लखनऊ में अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ी। उनकी सेना ने रेजिडेंसी पर हमला किया और महीनों तक अंग्रेजों को परेशान किया। जब हालात बिगड़े, तो वह नेपाल भाग गईं, जहाँ 1879 में उनकी मृत्यु हुई। उनकी हिम्मत और रणनीति ने अंग्रेजों को हैरान कर दिया था।
3. झलकारी बाई – लक्ष्मीबाई की परछाई
झलकारी बाई एक कोली परिवार में पैदा हुईं और झाँसी की सेना में सैनिक थीं। उनकी शक्ल रानी लक्ष्मीबाई से मिलती थी। 1858 में जब झाँसी पर हमला हुआ, तो झलकारी ने रानी का वेश धारण कर अंग्रेजों को भटकाया। इस दौरान रानी सुरक्षित निकल गईं। झलकारी ने अकेले ही दुश्मन सेना से लड़ाई की और अंत में पकड़ी गईं। कुछ कहानियों के अनुसार, अंग्रेजों ने उनकी वीरता से प्रभावित होकर उन्हें छोड़ दिया, लेकिन उनकी कुर्बानी ने रानी को बचाने में अहम भूमिका निभाई।
4. दुर्गा भाभी – क्रांतिकारियों की सहयोगी
दुर्गा देवी वोहरा का जन्म 1907 में इलाहाबाद में हुआ था। वह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ी थीं। 17 दिसंबर 1928 को जब भगत सिंह और राजगुरु ने सांडर्स को मारा, तो दुर्गा भाभी ने अपने पति भगवती चरण वोहरा के साथ भगत सिंह को पत्नी का वेश देकर लाहौर से निकाला। ट्रेन में अंग्रेजी जासूसों के बीच वह नन्हा बच्चा लिए शांत बैठी रहीं। बाद में वह खुद भी क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रहीं और 1930 में बम बनाने की कोशिश में अपने पति को खो दिया।
5. प्रीतिलता वादेदार – बंगाल की अग्निकन्या
प्रीतिलता का जन्म 5 मई 1911 को चटगाँव में हुआ था। वह पढ़ाई में तेज थीं और कोलकाता विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में डिग्री ली। सूर्य सेन के नेतृत्व में उन्होंने चटगाँव शस्त्रागार लूट में हिस्सा लिया। 24 सितंबर 1932 को यूरोपियन क्लब पर हमले के बाद पुलिस ने उन्हें घेर लिया। पकड़े जाने से बचने के लिए उन्होंने सायनाइड खा लिया। उनकी शहादत ने बंगाल में क्रांति की चिंगारी को और भड़काया।
6. कनकलता बरुआ – असम की वीरबाला
कनकलता का जन्म 22 दिसंबर 1924 को असम में हुआ था। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में वह सिर्फ 17 साल की थीं, जब उन्होंने तिरंगा लेकर गौरीपुर पुलिस थाने पर चढ़ाई की। 20 सितंबर 1942 को अंग्रेजी पुलिस ने उन पर गोलियाँ चलाईं। गोली उनकी छाती में लगी, लेकिन तिरंगा उनके हाथ से नहीं गिरा। उनके साथ उनकी सहेली मुकुंदा काकती भी शहीद हुईं। उनकी मासूमियत में छिपी वीरता आज भी असम के लिए प्रेरणा है।
7. मतंगिनी हाजरा – गांधी बुआ
मतंगिनी का जन्म 1870 में बंगाल में एक गरीब परिवार में हुआ था। 72 साल की उम्र में वह भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुईं। 29 सितंबर 1942 को तामलुक में तिरंगा लेकर वह आगे बढ़ीं। अंग्रेजों ने उन पर तीन गोलियाँ चलाईं – पहली हाथ में, दूसरी पैर में, और तीसरी छाती में। हर गोली के बाद वह “वंदे मातरम” चिल्लाती रहीं। उनकी शहादत ने यह साबित किया कि देशभक्ति की कोई उम्र नहीं होती।
8. कैप्टन लक्ष्मी सहगल – आजाद हिंद फौज की शेरनी
लक्ष्मी स्वामीनाथन का जन्म 24 अक्टूबर 1914 को मद्रास में हुआ था। वह एक डॉक्टर थीं, लेकिन 1943 में सिंगापुर में नेताजी से मिलने के बाद आजाद हिंद फौज में शामिल हुईं। उन्होंने “झाँसी रानी रेजिमेंट” की कमान संभाली, जिसमें 1000 से ज्यादा महिलाएँ थीं। बर्मा और इंफाल में उन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई की। 1945 में उनकी गिरफ्तारी हुई, लेकिन रिहाई के बाद भी वह सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहीं।
9. ऊषा मेहता – रेडियो की क्रांतिकारी
ऊषा मेहता का जन्म 25 मार्च 1920 को गुजरात में हुआ था। 1942 में गांधीजी के “करो या मरो” के आह्वान पर उन्होंने गुप्त “कांग्रेस रेडियो” शुरू किया। 42.34 मेगाहर्ट्ज पर उनकी आवाज अंग्रेजों के खिलाफ जनता को एकजुट करती थी। कई बार स्टेशन की जगह बदली गई, लेकिन 12 नवंबर 1942 को वह पकड़ी गईं। जेल में भी उनका हौसला कम नहीं हुआ। उनकी आवाज क्रांति का हथियार बनी।
10. भीकाजी कामा – तिरंगे की पहली डिजाइनर
भीकाजी कामा का जन्म 24 सितंबर 1861 को मुंबई में हुआ था। वह पेरिस में रहकर क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थीं। 22 अगस्त 1907 को स्टटगार्ट में उन्होंने भारत का पहला तिरंगा फहराया – हरा, केसरिया और लाल रंग का। उनके समाचारपत्र “वंदे मातरम” और “तलवार” ने विदेशों में क्रांति की अलख जगाई। 1936 में भारत लौटने के बाद उनकी मृत्यु हुई।
इन नायिकाओं की विरासत
ये वीरांगनाएँ हमें सिखाती हैं कि साहस और बलिदान से ही आजादी मिलती है। रानी लक्ष्मीबाई की तलवार, ऊषा मेहता की रेडियो आवाज, और कनकलता की गोली-खाई छाती – ये सब आज भी हमें प्रेरित करते हैं। इनकी कहानियाँ हमें याद दिलाती हैं कि आज का भारत इनके बलिदान की देन है। आइए, इनके सपनों को पूरा करने के लिए एक सुरक्षित और सम्मानजनक समाज बनाएँ।