उमर अब्दुल्ला: जम्मू-कश्मीर की राजनीति का एक चमकता सितारा

उमर अब्दुल्ला: जम्मू-कश्मीर की राजनीति का एक चमकता सितारा

उमर अब्दुल्ला: जम्मू-कश्मीर की राजनीति का एक चमकता सितारा

उमर अब्दुल्ला

जम्मू-कश्मीर की राजनीति में उमर अब्दुल्ला एक ऐसा नाम है, जो न केवल क्षेत्रीय बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी विशेष पहचान रखता है। नेशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री के रूप में, उमर ने अपने नेतृत्व, बुद्धिमत्ता और जमीनी स्तर पर लोगों से जुड़ने की क्षमता के कारण व्यापक लोकप्रियता हासिल की है। यह लेख उनके जीवन, राजनीतिक करियर, और जम्मू-कश्मीर की राजनीति में उनके योगदान पर एक विस्तृत नजर डालता है।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

उमर अब्दुल्ला का जन्म 10 मार्च 1970 को यूनाइटेड किंगडम के रोचडेल में हुआ था। वे जम्मू-कश्मीर की राजनीति के सबसे प्रभावशाली परिवारों में से एक के वारिस हैं। उनके दादा, शेख अब्दुल्ला, जिन्हें “शेर-ए-कश्मीर” के नाम से जाना जाता है, ने 1932 में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस की स्थापना की थी, जो बाद में नेशनल कॉन्फ्रेंस बनी। उमर के पिता, फारूक अब्दुल्ला, भी नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर के कई बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इस तरह, उमर का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ, जिसका राजनीति से गहरा नाता था।

उमर ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा श्रीनगर के बर्न हॉल स्कूल और देहरादून के द दून स्कूल में पूरी की। इसके बाद, उन्होंने मुंबई के सिडेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स से बी.कॉम की डिग्री हासिल की। उनकी शिक्षा ने उन्हें न केवल राजनीतिक समझ प्रदान की, बल्कि वैश्विक दृष्टिकोण भी दिया, जो बाद में उनके नेतृत्व में दिखाई दिया।

राजनीतिक करियर की शुरुआत

उमर अब्दुल्ला ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत 1998 में की, जब वे श्रीनगर लोकसभा सीट से पहली बार सांसद चुने गए। उस समय उनकी उम्र मात्र 28 वर्ष थी, और वे भारत के सबसे युवा सांसदों में से एक थे। 1999 में, वे दोबारा श्रीनगर से सांसद चुने गए और अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार में विदेश मामलों के राज्य मंत्री बने। यह उनके करियर का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था, क्योंकि इतनी कम उम्र में उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली थी।

2001 में, उमर को नेशनल कॉन्फ्रेंस का अध्यक्ष बनाया गया, जब उनके पिता फारूक अब्दुल्ला ने पार्टी की कमान उन्हें सौंपी। यह उनके लिए एक बड़ी जिम्मेदारी थी, क्योंकि नेशनल कॉन्फ्रेंस उस समय जम्मू-कश्मीर की सबसे प्रभावशाली क्षेत्रीय पार्टियों में से एक थी। उमर ने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया और पार्टी को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

उमर अब्दुल्ला

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में कार्यकाल

उमर अब्दुल्ला का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक योगदान 2009 से 2015 तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में देखा जा सकता है। 2008 के विधानसभा चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और सरकार बनाई। 5 जनवरी 2009 को, उमर ने 38 वर्ष की उम्र में जम्मू-कश्मीर के 11वें और सबसे युवा मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली।

उनके कार्यकाल के दौरान, उमर ने कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। उन्होंने जम्मू-कश्मीर में विकास और शांति को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं शुरू कीं। उनके प्रशासन ने बुनियादी ढांचे, शिक्षा, और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार पर ध्यान केंद्रित किया। इसके अलावा, उन्होंने युवाओं को रोजगार के अवसर प्रदान करने के लिए विभिन्न पहल कीं। हालांकि, उनका कार्यकाल विवादों से भी मुक्त नहीं रहा। 2010 में कश्मीर घाटी में हुए विरोध प्रदर्शनों ने उनके प्रशासन के सामने कई चुनौतियां खड़ी कीं। फिर भी, उमर ने संयम और संवाद के माध्यम से स्थिति को संभालने की कोशिश की।

अनुच्छेद 370 और उसके बाद

2019 में, जब केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त किया और जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया, उमर अब्दुल्ला ने इसका पुरजोर विरोध किया। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इस फैसले को जम्मू-कश्मीर के लोगों के अधिकारों पर हमला करार दिया। इस दौरान, उमर को कई महीनों तक नजरबंद रखा गया, जो उनके लिए और उनकी पार्टी के लिए एक कठिन समय था।

हालांकि, 2024 में जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों के बाद उमर अब्दुल्ला ने एक बार फिर अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया। नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन ने 48 सीटें जीतीं, और उमर 16 अक्टूबर 2024 को केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री बने। इस जीत को उन्होंने जनता के विश्वास और लोकतंत्र की जीत के रूप में देखा।

उमर अब्दुल्ला

व्यक्तिगत जीवन और विवाद

उमर अब्दुल्ला का व्यक्तिगत जीवन भी चर्चा का विषय रहा है। उन्होंने 1994 में पायल नाथ से शादी की, लेकिन 2011 में दोनों अलग हो गए। उनके दो बेटे, जाहिर और जामिर, हैं। हाल के वर्षों में, उनके निजी जीवन को लेकर कई अफवाहें और चर्चाएं सामने आईं, लेकिन उमर ने हमेशा अपनी निजता को बनाए रखने की कोशिश की।

राजनीतिक रूप से, उमर को कई बार विवादों का सामना करना पड़ा। 2024 में, गांदरबल आतंकी हमले के बाद उनके द्वारा आतंकवादियों के लिए “उग्रवादी” शब्द का इस्तेमाल करने पर सोशल मीडिया पर उनकी आलोचना हुई। इसके अलावा, उनकी कुछ टिप्पणियों, जैसे कि इंडिया गठबंधन की आंतरिक एकता पर सवाल उठाना, ने भी विवाद को जन्म दिया।

जम्मू-कश्मीर के लिए उनकी दृष्टि

उमर अब्दुल्ला ने हमेशा जम्मू-कश्मीर में शांति, विकास, और समावेशी राजनीति की वकालत की है। वे मानते हैं कि जम्मू-कश्मीर के लोगों का विश्वास जीतने के लिए केंद्र सरकार के साथ सहयोग जरूरी है। उन्होंने बार-बार राज्य का दर्जा बहाल करने की मांग की है और इसे जम्मू-कश्मीर के लोगों के संवैधानिक अधिकारों की बहाली के रूप में देखा है।

उमर ने यह भी कहा है कि उनकी सरकार केंद्र के साथ मिलकर काम करेगी ताकि क्षेत्र में बुनियादी ढांचे, पर्यटन, और रोजगार के अवसरों को बढ़ाया जा सके। 2025 में, उन्होंने जेड-मोर्ह टनल के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा की और इसे क्षेत्र के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण कदम बताया।

उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर की राजनीति का एक ऐसा चेहरा हैं, जो युवा ऊर्जा, अनुभव, और दूरदर्शिता का मिश्रण है। उनके नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन उनकी लोकप्रियता और जनता के साथ जुड़ाव ने उन्हें एक मजबूत नेता बनाया है। चाहे वह अनुच्छेद 370 का मुद्दा हो, राज्य के दर्जे की बहाली हो, या जम्मू-कश्मीर में शांति और विकास की बात हो, उमर ने हमेशा अपने विचारों को स्पष्टता और दृढ़ता के साथ रखा है।

आज, जब वे एक बार फिर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में सेवा कर रहे हैं, उनकी जिम्मेदारी पहले से कहीं अधिक है। उनके सामने चुनौतियां कई हैं, लेकिन उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और जनता के प्रति समर्पण को देखते हुए, यह कहा जा सकता है कि उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के भविष्य को उज्ज्वल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

प्यार की कब्र: सौरभ राजपूत को 15 टुकड़ों में काटने वाली हैवान बीवी की कहानी

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प्यार की कब्र: सौरभ राजपूत को 15 टुकड़ों में काटने वाली हैवान बीवी की कहानी

सौरभ राजपूत

प्यार की राहें अक्सर फूलों से सजी लगती हैं, लेकिन मेरठ की एक गली में यह राह खून से लथपथ हो गई। सात फेरे, सात वचन और सात जन्मों का बंधन—ये शब्द सुनते ही दिल में एक सुकून सा महसूस होता है। लेकिन क्या हो जब यही वचन चीखते हुए 15 टुकड़ों में बंट जाएं और प्यार की आड़ में छिपा एक खौफनाक चेहरा सामने आए? सौरभ राजपूत की कहानी ऐसी ही एक रूह कंपा देने वाली दास्तां है, जो सुनने वालों की नींद उड़ा देती है।

यह एक सौरभ राजपूत लव मैरिज की वह भयानक सच्चाई है, जहां पत्नी मुस्कान ने अपने प्रेमी साहिल के साथ मिलकर न सिर्फ अपने पति की हत्या की, बल्कि उसकी लाश को 15 टुकड़ों में काटकर सीमेंट के ड्रम में कैद कर दिया। यह कहानी किसी डरावनी फिल्म से कम नहीं—बल्कि उससे भी ज्यादा भयावह।

प्यार का भूत और सौरभ का सपना

सौरभ राजपूत, एक मर्चेंट नेवी ऑफिसर, जिसकी जिंदगी समंदर की लहरों और लंदन की सड़कों के बीच बीतती थी। 2016 में उसकी मुलाकात मुस्कान रस्तोगी से हुई। यह मुलाकात जल्द ही एक ऐसे प्यार में बदली, जिसके लिए सौरभ राजपूत ने अपने परिवार से बगावत कर दी। इंटरकास्ट लव मैरिज के चलते उसे घर से निकाल दिया गया, प्रॉपर्टी से हाथ धोना पड़ा, लेकिन सौरभ को लगा कि मुस्कान उसकी जिंदगी का वो जहाज है जो उसे हर तूफान से बचा लेगी। मेरठ के इंदिरा नगर में किराए के मकान में दोनों ने नई शुरुआत की।

उनकी 6 साल की बेटी पीहू उनकी जिंदगी की रोशनी बन गई। लेकिन सौरभ राजपूत को क्या पता था कि जिस मुस्कान को उसने अपनी दुनिया बनाया, वही उसकी कब्र खोद रही थी।

सौरभ राजपूत की नौकरी उसे लंदन ले जाती थी, और मुस्कान घर पर अकेली रहती थी। इसी अकेलेपन में साहिल शुक्ला नाम का एक शैतान उसकी जिंदगी में दाखिल हुआ। पहले दोस्ती, फिर प्यार, और फिर एक ऐसा रिश्ता जो सौरभ राजपूत की मौत का कारण बन गया। जब सौरभ राजपूत को इस नाजायज रिश्ते का पता चला, तो उसने मुस्कान को माफ कर दिया। शायद उसे लगा कि प्यार में एक बार भटकना माफ किया जा सकता है। लेकिन यह माफी उसकी सबसे बड़ी गलती थी।

सौरभ राजपूत

खून से सनी रात का भयानक मंजर

फरवरी 2025 में सौरभ राजपूत अपनी बेटी पीहू के छठे जन्मदिन और मुस्कान के बर्थडे के लिए लंदन से मेरठ लौटा। 24 फरवरी को वह घर पहुंचा। 28 फरवरी को बेटी का जन्मदिन मनाया गया—हंसी-खुशी का माहौल था। लेकिन यह खुशी एक भयानक तूफान का इंतजार कर रही थी। 4 मार्च की रात, जब आसमान पर काले बादल छाए थे और मेरठ की सड़कें सन्नाटे में डूबी थीं, उस घर में एक खौफनाक साजिश ने जन्म लिया।

सौरभ राजपूत सो रहा था, शायद अपनी बेटी और पत्नी के साथ बिताए पलों के सपने देख रहा था। लेकिन मुस्कान और साहिल के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। पहले सौरभ राजपूत को नशीली दवा दी गई—उसकी सांसें धीमी हुईं, आंखें बंद हुईं।

फिर मुस्कान ने अपने हाथों से चाकू उठाया और अपने पति के सीने में गहरे तक उतार दिया। खून की धार बह निकली, लेकिन यह दोनों के लिए काफी नहीं था। सौरभ राजपूत की लाश को बाथरूम में घसीटा गया। इसके बाद जो हुआ, वह किसी हैवानियत से कम नहीं था।

मुस्कान और साहिल ने सौरभ राजपूत के शरीर को आरी और चाकू से 15 टुकड़ों में काट डाला। हर टुकड़ा करते वक्त उनकी आंखों में शायद एक शैतानी चमक थी। खून से सने हाथों से उन्होंने बाजार से लाए प्लास्टिक ड्रम में सौरभ राजपूत के टुकड़े भरे। बदबू को दबाने के लिए पहले पानी डाला, फिर सीमेंट का घोल तैयार किया और ड्रम को सील कर दिया। यह सब इतनी शांति से हुआ कि बाहर सोता मोहल्ला बेखबर रहा। क्या उस रात सौरभ राजपूत की रूह चीख रही होगी? क्या उसे अपने प्यार पर इतना बड़ा धोखा मिलने का अंदाजा था?

लाश का ड्रम और शैतानी छल

हत्या के बाद मुस्कान और साहिल ने ऐसा नाटक रचा कि कोई शक न करे। मुस्कान ने पड़ोसियों को बताया कि वह सौरभ राजपूत के साथ हिल स्टेशन घूमने जा रही है। साहिल के साथ वह शिमला और मनाली घूमने निकल गई। सौरभ के फोन से फोटोशॉप की गई तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाली गईं—जैसे सौरभ राजपूत जिंदा हो और उनके साथ मस्ती कर रहा हो। लेकिन घर में बंद वह ड्रम एक भयानक राज छिपाए हुए था। सीमेंट में जमी लाश धीरे-धीरे सड़ रही थी, और उसकी बदबू हवा में घुलने लगी थी।

17 मार्च को मुस्कान की मां ने पुलिस को फोन किया। उसने बताया कि उसकी बेटी ने उसे फोन पर सारी सच्चाई बता दी थी। पुलिस जब घर पहुंची, तो वहां का मंजर देखकर उनके भी रोंगटे खड़े हो गए। ड्रम को खोलने के लिए ड्रिल मशीन लानी पड़ी। जब सीमेंट टूटा, तो सौरभ राजपूत के सड़े-गले टुकड़े बाहर आए—हाथ, पैर, सिर—हर हिस्सा चीख रहा था। पोस्टमॉर्टम हाउस में डॉक्टरों के चेहरों पर भी डर साफ दिख रहा था।

सौरभ राजपूत

पुलिस का शिकंजा और सच का काला चेहरा

मुस्कान और साहिल को गिरफ्तार कर लिया गया। पूछताछ में पता चला कि हत्या के बाद दोनों सौरभ राजपूत के बैंक खाते से 6 लाख रुपये निकालना चाहते थे। यह सिर्फ प्यार का धोखा नहीं था, बल्कि लालच का खेल भी था। मुस्कान ने पुलिस को बताया कि वह सौरभ राजपूत से तंग आ चुकी थी और साहिल के साथ नई जिंदगी शुरू करना चाहती थी। लेकिन उसने जो रास्ता चुना, वह किसी इंसान का नहीं, बल्कि एक राक्षस का था।

सात फेरों का अंत और डरावना सबक

सौरभ राजपूत की यह कहानी सुनकर रातों की नींद गायब हो जाती है। जिस प्यार के लिए उसने सब कुछ छोड़ा, उसी ने उसे मौत के मुंह में धकेल दिया। सात फेरे जो जिंदगी की कसम थे, 15 टुकड़ों में बंट गए। यह घटना एक सवाल छोड़ जाती है—क्या प्यार इतना खतरनाक हो सकता है? क्या विश्वास की आड़ में कोई इतना बड़ा धोखा दे सकता है? सौरभ राजपूत की बेटी पीहू अब अनाथ है, और उसका भविष्य अंधेरे में डूब गया है।

मेरठ का यह हत्याकांड एक ऐसी डरावनी सच्चाई है जो हर किसी को डरा देती है। यह प्यार की नहीं, बल्कि हैवानियत की कहानी है। सौरभ राजपूत की चीखें शायद उस ड्रम में हमेशा के लिए कैद हो गईं, लेकिन यह घटना हमें चेतावनी देती है—प्यार में अंधा होना कितना खतरनाक हो सकता है। क्या आप इस कहानी को सिर्फ एक अपराध मानते हैं, या यह हमारे समाज में छिपे डरावने सच का आलम है? अपनी राय बताएं, क्योंकि यह कहानी हर उस शख्स को डराती है जो प्यार को सच मानता है।

बांग्लादेश संकट 2024: शेख हसीना के सामने बढ़ती चुनौतियाँ

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बांग्लादेश संकट

पिछले कुछ महीनों में, बांग्लादेश संकट ने खुद को एक बहुआयामी आपातकाल में पाया है जो इसकी राजनीतिक मजबूती, वित्तीय विकास और सामाजिक सामंजस्य को कमज़ोर कर रहा है। इस उथल-पुथल के केंद्र में प्रधानमंत्री शेख हसीना हैं, जिनकी सत्ता का पहले कभी इतना परीक्षण नहीं हुआ।

राजनीतिक उथल-पुथल

बांग्लादेश संकट में राजनीतिक परिदृश्य लगातार अस्थिर रहा है। शेख हसीना द्वारा संचालित सत्तारूढ़ अवामी गठबंधन और विपक्षी बांग्लादेश पैट्रियट पार्टी (बीएनपी) के बीच तनाव सड़क पर होने वाले असंतोष और हिंसक झड़पों में बदल गया है। बीएनपी, अन्य विपक्षी दलों के साथ, सरकार पर तानाशाही और जातिवाद का आरोप लगाते हुए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की मांग कर रही है।

इन असंतोषों पर सरकार की प्रतिक्रिया बहुत ज़्यादा रही है। पुलिस की कार्रवाई, सामूहिक गिरफ़्तारी और अत्यधिक दबाव का इस्तेमाल व्यापक रूप से विस्तृत रहा है, जिस पर मानवाधिकार संगठनों से प्रतिक्रिया मिली है। प्रतिबंध का दावा है कि ये गतिविधियाँ अगले आम चुनाव से पहले विवाद को शांत करने और नियंत्रण को एकजुट करने के उद्देश्य से की गई हैं।

वित्तीय संघर्ष

राजनीतिक संकट के समानांतर, बांग्लादेश संकट गंभीर वित्तीय चुनौतियों से जूझ रहा है। कोविड-19 महामारी ने देश की अर्थव्यवस्था पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है, जो कपड़ा उद्योग और विदेशी श्रमिकों से बस्तियों पर अत्यधिक निर्भर है। 2022 में जोरदार सुधार के बावजूद, वैश्विक वित्तीय मंदी और बढ़ती मुद्रास्फीति ने आधुनिक खतरे पैदा कर दिए हैं।

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विश्व बैंक और वैश्विक वित्तीय सहायता (IMF) दोनों ने बांग्लादेश के लिए अपने विकास अनुमानों को घटा दिया है। बढ़ती वैश्विक खाद्य कीमतों के कारण मुद्रास्फीति ने नियंत्रण खो दिया है और व्यापक असंतोष को जन्म दिया है। भोजन और ईंधन जैसे बुनियादी वस्तुओं की मांग में भारी वृद्धि हुई है, जिससे आम नागरिकों पर भारी बोझ पड़ा है।

इन वित्तीय चुनौतियों को कम करने के लिए, सरकार ने आवंटन और सामाजिक सुरक्षा जाल सहित कुछ उपाय पेश किए हैं। हालाँकि, आलोचकों का तर्क है कि ये उपाय अपर्याप्त हैं और टिकाऊ विकास सुनिश्चित करने के लिए अधिक व्यापक सहायक परिवर्तनों की आवश्यकता है।

बांग्लादेश संकट

सामाजिक मुद्दे

सामाजिक मुद्दे भी चरम पर हैं, जो बढ़ते आपातकाल के कारण और भी गंभीर हो गए हैं। बांग्लादेश ने पिछले दशक में गरीबी कम करने और मानव विकास में महत्वपूर्ण प्रगति की है। हालाँकि, व्यापक रूप से इनमें से कुछ प्रगति हुई है, जिससे लाखों लोग गरीबी में वापस चले गए हैं।

शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा ढांचे पर दबाव है। व्यापक रूप से स्कूल बंद होने से लाखों बच्चों की शिक्षा बाधित हुई है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ ऑनलाइन शिक्षा संभव नहीं थी। स्वास्थ्य सेवा ढांचा, जो पहले से ही नाजुक है, को व्यापक रूप से मांगों के साथ तालमेल बिठाने में संघर्ष करना पड़ा है, जिससे लंबे समय से चली आ रही कमियाँ उजागर हुई हैं।

इसके अलावा, रोहिंग्या विस्थापित व्यक्ति आपातकाल एक उल्लेखनीय बोझ बना हुआ है। बांग्लादेश में दस लाख से अधिक रोहिंग्या विस्थापित लोग हैं जो म्यांमार में दुर्व्यवहार से भागकर आए हैं। वैश्विक समुदाय की कमर टूट गई है, जिससे बांग्लादेश को बहुत अधिक जिम्मेदारी उठानी पड़ रही है। विस्थापित लोग भरे हुए शिविरों में रहते हैं जहाँ आवश्यक सेवाओं तक उनकी पहुँच सीमित है, जिससे एक ऐसा संकट पैदा हो गया है जिसका समाधान होने का कोई संकेत नहीं दिखता।

शेख हसीना का नेतृत्व

शेख हसीना, जो 2009 से सत्ता में हैं, अपने कार्यकाल के सबसे चुनौतीपूर्ण दौर से गुज़र रही हैं। अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति वाली सरकार और बांग्लादेश को बदलने वाले आर्थिक बदलावों के लिए जानी जाने वाली हसीना इस समय खुद को एक संदिग्ध स्थिति में पाती हैं।

उनके संगठन को उनके बुनियादी उपक्रमों, आर्थिक बदलावों और महिलाओं के अधिकारों के लिए आगे आने के प्रयासों के लिए सराहा गया है। हालाँकि, राजनीतिक विरोधाभास और मीडिया की स्वतंत्रता के प्रति उनके दृष्टिकोण की व्यापक रूप से आलोचना की गई है। उन्नत सुरक्षा अधिनियम, जिसका उपयोग लेखकों को पकड़ने और स्वतंत्र भाषण को दबाने के लिए किया गया है, ने वैश्विक निंदा की है।

हसीना की सरकार पर भाईचारे और भ्रष्टाचार का आरोप भी लगाया गया है। पक्षपात और सार्वजनिक दुकानों के दुरुपयोग की पुष्टि ने उनके प्रशासन की छवि को धूमिल कर दिया है, जिससे सार्वजनिक विश्वास कम हुआ है।

बांग्लादेश संकट

वैश्विक संबंध

वैश्विक स्तर पर, बांग्लादेश संकट के बाहरी संबंधों पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। देश के महत्वपूर्ण क्षेत्र और विकासशील अर्थव्यवस्था ने इसे क्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियों के लिए एक केंद्रीय बिंदु बना दिया है। पड़ोसी भारत के साथ संबंध मजबूत बने हुए हैं, लेकिन जल-बंटवारे की समझ और सीमा मुद्दों पर दबाव है।

चीन ने बांग्लादेश में उद्यमों और ढांचागत उपक्रमों के माध्यम से अपने प्रभाव का विस्तार किया है, जिसने आधुनिक दिल्ली और वाशिंगटन में चिंताएँ बढ़ा दी हैं। संयुक्त राष्ट्र ने बांग्लादेश में मानवाधिकार हनन और वोट आधारित प्रणाली की स्थिति के बारे में चिंताएँ व्यक्त की हैं, जिससे सुलह परिदृश्य जटिल हो गया है।

आगे की राह

बांग्लादेश इन अशांत समयों से गुज़र रहा है, शेख हसीना की भूमिका देश के भविष्य को तय करने में महत्वपूर्ण होगी। वित्तीय सुधार, राजनीतिक सुदृढ़ता और सामाजिक सामंजस्य को समायोजित करने के लिए कुशल प्राधिकरण और व्यापक शासन की आवश्यकता होगी।

कई बांग्लादेशियों के लिए, भरोसा ऐसे भविष्य में है जहाँ वित्तीय अवसर खुले हों, राजनीतिक लचीलेपन को महत्व दिया जाए और सामाजिक समानता की जीत हो। आगे का रास्ता आसान नहीं होगा, लेकिन लचीलेपन और आश्वासन के साथ, बांग्लादेश अपनी मौजूदा आपात स्थिति से उबर सकता है और अपनी प्रगति और उन्नति की यात्रा पर आगे बढ़ सकता है।

पश्चिम बंगाल: भाजपा और तृणमूल कांग्रेस की इज्जत का सवाल

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पश्चिम बंगाल

लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल की 42 सीटें राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भाजपा के लिए नाक और साख का सवाल बन गई है| इन सीटों के लिए सात चरणों में मतदान होना है| इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों यानी कांग्रेस और वाम मोर्चा के साथ सीटों पर तालमेल के बजाय तृणमूल कांग्रेस बंगाल की तमाम सीटों पर अकेले ही लड़ रही है| कांग्रेस और वाम मोर्चा ने सीटों पर समझौता किया है, तो दूसरी ओर भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा भी तमाम सीटों पर चुनाव लड़ रही है|

इन दोनों दावेदारों ने, यानी तृणमूल कांग्रेस और भाजपा पर इस बार अपनी पुरानी सीटों को बचाने और उनकी संख्या बढ़ाने की काफी बड़ी चुनौती है| यही वजह है कि दोनों पार्टियों के शीर्ष नेताओं ने बेहद आक्रामक चुनाव अभियान शुरू कर दिया है| बीते 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को 18 सीटें तो तृणमूल कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं| दो सीटें भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के खाते में गई थीं, जबकि वाम मोर्चा का खाता भी नहीं खुला था|

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पश्चिम बंगाल में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर

वैसे तो सीटों के लिहाज से पश्चिम बंगाल तीसरा सबसे बड़ा राज्य है, और यह तमाम राजनीतिक दलों के लिए हमेशा काफी अहम रहा है| पर इस बार दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों यानी भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच कांटे की लड़ाई के कारण इसकी अहमियत कहीं ज्यादा बढ़ गई है| प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले चरण के मतदान से पहले ही आधा दर्जन चुनावी रैलियां कर चुके हैं| तो वहीँ दूसरी ओर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी पीछे नहीं हैं| भाजपा ने बंगाल में कम से कम 35 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है| तो वहीं दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस ने भी ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के प्रयास में मैदान में 26 नए चेहरे उतारें है|

पश्चिम बंगाल

बड़े राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा को नागरिक संशोधन कानून और संदेशखाली कांड का फायदा मिल सकता है| भाजपा नागरिकता संशोधन कानून के जरिए बंगाल की एक करोड़ से ऊपर की मतुवा आबादी को अपने पाले में खींचना चाहती है| इसी तरह संदेशखाली कार्ड के जरिए पार्टी के तमाम नेता राज्य में महिलाओं की स्थिति का प्रचार कर रहे हैं| बंगाल में कम से कम पांच सीटों पर मतुवा वोटर निर्णायक हैं|

इनमें तृणमूल कांग्रेस की नेता महुआ मोईत्रा की कृष्णानगर सीट भी है, पर ममता बनर्जी और उनकी पार्टी लगातार भ्रम फैला रही है कि नागरिकता संशोधन कानून के तहत आवेदन करते ही नागरिकता छीन ली जाएगी| ममता इस कानून को एनआरसी से भी जोड़ रही है| ऐसे में, फिलहाल इस कानून का चुनावी फायदा या नुकसान किसे होगा, यह बताना मुश्किल है| भाजपा के लिए तृणमूल कांग्रेस द्वारा किये गए शिक्षक भर्ती घोटाला और राशन घोटाला भी एक प्रमुख मुद्दा है|

चुनाव में महिलाओं की काफी बड़ी भूमिका

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समेत तृणमूल कांग्रेस के कई नेता केंद्रीय एजेंसियों के राजनीतिक इस्तेमाल का झूठा आरोप लगा रहे हैं| साथ ही, केंद्रीय योजनाओं के मद में कोई पैसा नहीं देने का भी आरोप भी लगा रहे हैं| ममता और पार्टी के नेता राज्य सरकार की ओर से शुरू की गई लक्ष्मी भंडार, कन्याश्री, युवाश्री और सबुज साथी के अलावा बुजुर्ग और विधवा पेंशन जैसी कई योजनाओं का जमकर प्रचार कर रहे हैं| बंगाल राज्य के 7.5 करोड़ वोटरों में से 3.59 करोड़ महिलाएं वोटर शामिल हैं|

2021 के बंगाल विधानसभा चुनाव में इन योजनाओं ने महिलाओं के करीब 55% वोट तृणमूल कांग्रेस को दिलाया था| उसके बाद लक्ष्मी भंडार योजना शुरू की गई| केंद्रीय योजनाओं की काट के तौर पर राज्य सरकार व तृणमूल कांग्रेस अपने मजबूत तंत्र के जरिए अपनी योजनाओं का बड़े स्तर तक प्रचार करने में सफल रही हैं| लेकिन इन योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभ में विपक्षी पार्टियां भ्रष्टाचार के आरोप लगाती रहीं, जो कि कहीं हद तक सही है| लेकिन पार्टी के नेता ये सब जानते हुए भी कहते हैं कि इसका कोई असर नहीं होगा|

पश्चिम बंगाल

संदेशखाली कांड और कई घोटालों ने खराब की पार्टी की छवि

उत्तर 24-परगना जिले में विभिन्न घोटालों में तृणमूल कांग्रेस के मजबूत नेताओं की गिरफ्तारी ने भी पार्टी की चिंता बढ़ा दी है| वहां संगठन संभालने वाले मंत्री ज्योतिप्रिय मल्लिक राशन घोटाले के कारण जेल में है| वहीं कोलकाता और हुगली जिलों में चुनावी जिम्मा संभालने वाले पार्थ चटर्जी भी शिक्षक भर्ती घोटाले के कारण जेल में है| संदेशखाली की भयावह घटना और उस मामले में दोषी शाहजहां शेख समेत पार्टी के कई नेताओं की गिरफ्तारी भी तृणमूल कांग्रेस के लिए सिरदर्द बन गया है| संदेशखाली इलाका बशीरहाट लोकसभा क्षेत्र के तहत है|

पार्टी ने इसी सीट से पिछली बार जीतने वाली अभिनेत्री नुसरत जहां को टिकट नहीं दिया है| संदेशखाली कांड के दौरान वहाँ की महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को नज़रअंदाज़ करने के कारण नुसरत जहाँ की काफी बेइज्जती हुई है| इसी तरह बीरभूम और आस पास के जिलों में पार्टी के चुनाव अभियान की जिम्मेदारी उठाने वाले बाहुबली नेता अणुव्रत मंडल भी पशु तस्करी के मामले में दिल्ली की तिहाड़ जेल में है| पिछले चुनाव में पार्टी का मजबूत स्तंभ रहे पार्थ चटर्जी जेल में है, तो शुभेंदु अधिकारी भाजपा में शामिल हो चुके हैं| पार्टी में जाने के बाद शुभेंदु अधिकारी ने जमीनी स्तर पर भाजपा को काफी मजबूती प्रदान की है|

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